नारी का अस्तित्व

नारी का अस्तित्व

बहुत लम्बा अरसा हो गया हमें साथ में रहते हुए, 

जिंदगी के खूबसूरत लम्हों को मिलकर संजोते हुए,

पर फिर भी तुम मुझे कभी समझ ही ना सके।

खुशी हुई मुझे हर दर्द को तुम्हारे अपना बनाते हुए, 

सब कुछ छोड़कर अपना आई थी मैं सिर्फ तुम्हारे लिए, 

पर फिर भी मुझे तुम कभी दिल से अपना ही ना सके।

मलाल नहीं मुझे कि तुम इस विपदा में छोड़कर गए, 

फेरों के उन सात वचनों से मुख मोड़कर गए, 

पर फिर भी मेरी उम्मीदों को तुम तोड़ ना सके।

आज मैं दुखी हूँ अपने ही दर्द में मशगूल रहते हुए, 

रोज जलती हूँ तुम्हारी कड़वी बातों को सुनते हुए, 

पर फिर भी मेरी ख़ामोशी को तुम समझ ना सके।

ज़िंदगी कट रही है बस तुम्हारे साथ होकर भी न साथ रहते हुए, 

जीवन बीत गया सम्पूर्ण मेरा तुम्हारे संसार को संभालते हुए, 

पर फिर भी तुम मुझे कभी प्रेम से संभाल ही ना सके।

शीर्षक – नकारते है हम रिश्तों को जितना

नकारते है हम रिश्तों को जितना,

वो उतना ही हमारे करीब आ जाते हैं।

प्रेम जिंदा रहता है दिल में हर पल, 

बस वक़्त की शूली पर हम चढ़ जाते हैं। 

आख़िर मनुष्य है न भ्रम के वशीभूत हो अकसर, 

नाते-रिश्ते तोड़ने की कोशिश कर जाते हैं। 

ये रिश्ते होते है भगवान का दिया  सुंदर उपहार, 

इनसे हम ज़्यादा देर मुख नहीं मोड़ पाते हैं। 

जीवन है दुःख-दर्द, हँसी-खुशियों से बना

दवा का ख़ज़ाना, अपने ही कहलाते हैं। 

हाथ से पल भर का साथ क्या छूटे, 

थोड़ा-सा नाराज़ ज़रूर हो जाते हैं। 

सीने में भरकर उनके लिए गुस्सा, 

आँखों में आँसू छिपाते रह जाते हैं। 

प्रेम मैं वो तपिश है दुनिया की, 

जिसके समक्ष पत्थर भी पिघल जाते हैं। 

हम तो ठहरे इंसान भावनाओं से बने, 

भावों के आगे ख़ुद निढाल पड़ जाते हैं।

 शीर्षक – पत्नी

बड़ी नफ़ासत से सब कुछ, मेरे नाम का उसने अपना रखा है। 

मेरी पत्नी है वो जिसने अपने नाम का, एक सपना भी नहीं रखा है।

मैं तो बस अपनी नौकरी में मशगूल रहता हूँ, 

मेरी पत्नी ने अपनी नौकरी के साथ, मेरा घर सम्भाल रखा है। 

मेरी गलतियों को उसने हमेशा छुपाकर रखा है,

अपने अहम में चूर मैं उसे बोलने का अवसर नहीं देता हूँ।

मैंने सदा के लिए उसे केवल स्वार्थवश, अपनी आदत में शामिल कर रखा है।

मेरी पत्नी है वो जिसने मुझको जीताकर मेरे स्वाभिमान को ज़िंदा रखा है,

मैं तो सदा ही उसे बस, श्रृंगार की तुला पर तौलता आया हूँ,

मेरी पत्नी है वो जिसने, मेरे लिए अपना सर्वस्व लुटा रखा है। 

मैं तो उसकी छोटी-छोटी गलती को, बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता हूँ, 

लेकिन मेरी पत्नी है वो जिसने, मुझे, पूर्ण श्रद्वाभाव से अपना ख़ुदा मान रखा है।

लेखिका:  प्रिया कुमारी 

फरीदाबाद

4 thoughts on “नारी का अस्तित्व”

  1. वाह क्या बात है बहुत बढिया लिखा है आपने ।
    और सहेजा भी बहुत अच्छे तरीके से है। यहां पर ।
    मैं योर क्योट लिंक से यहा आया पर विजिट कर अच्छा लगा आपकी रचनाये पढकर..आप यूं ही लिखते रहे

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *