ये बिखरी हुई ज़िंदगी मुझे अक़्सर दिख जाती है
जब कभी मेरी रेलगाड़ी आउटर पर रुक जाती है
मेरी अंतरात्मा रो पड़ती है देखकर के ये इन्सान
नर्क कैसा होगा कल्पना भरना हो जाता है आसान
भूखे नंगे बच्चे नाम के मकान, हर हाथ में दुकान
ये जान पर खेलकर टूट पड़ते है बेचने को सामान
अभी इनसे कोसों दूर है हमारे स्वक्षता अभियान
अभी शायद इनके पूरे नहीं हुए दुखों के इम्तिहान
इन्हें शायद भूलकर आगे बढ़ गया साक्षरता मिशन
छोटी सी उम्र में ही इन्हें प्यार करने लगे सारे व्यसन
सबके राशन कार्ड है सबका वोटर लिस्ट में नाम है
आखिर हर एक इलेक्शन में तो इन्हीं से काम है
इनकी मजबूरियाँ बहुत ही सस्ते में बिक जाती है
ये बिखरी हुई ज़िंदगी मुझे अक्सर दिख जाती है
जब कभी मेरी रेलगाड़ी आउटर पर रुक जाती है।
खामोशी…..
बदली है इक झूम के आई हुई
अब घटा है प्यार की छाई हुई
जब से डूबा हूॅं तुम्हारी याद में
हर तरफ है ख़ामोशी छाई हुई
दिख रहा है उनके मिलने का असर
फिर रही हो खूब इतराई हुई
क्या कहा है कान में कुछ तो कहो
लाल रंग है क्यों हो शरमाई हुई
हर अदा तेरी बड़ी हसीन है
हर अदा तेरी है भरमाई हुई
किस से मिलकर आ रही हो सच कहो
दिख रही है बहकी – घबराई हुई
कुछ तो है, जो इस क़दर ख़ामोश हो
फिर रही हो मुझसे कतराई हुई..!
बचपन….
अमरैया की छाॅंव तले
नन्हे – नन्हे पाँव चले!
हरी – भरी डाली में झूमें
बचपन जिसकी गोद पले!
मीठे फल और ठंडी छाॅंव
बरगद वाला मेरा गाॅंव!
लट देखो धरती को चूमे
मस्ती में वो सर- सर झूमे!
ज्यों मतवाली नाव चले
अमरैया की छाॅंव तले!
बजती जब पत्तों की ताली
कूके तब कोयल मतवाली!
टहनी ने खूब दुलारा है
सबको सदा पुकारा है!
पिता सरीखे प्यार दिया
जीवन सदा संवारा है!
सबके आँसू पीकर इसने
शीतलता से घाव भरे!
मस्ती में है नन्हा अर्जुन
और गुलाबो दाँव चले!
अमरैया की छाॅंव तले
नन्हे -नन्हे पाँव चले!
हरी – भरी डाली में झूमे
बचपन जिसकी गोद पले
लेखिका : उषा पटेल
छत्तीसगढ़, दुर्ग