अक्सर देखा है उन मासूम ऑंखों में सपनों को मरते हुए, रोजाना, हर दिन, हर पल, एक ख़्वाब को धीरे-धीरे दम तोड़ते हुए। कभी सिग्नल पर नन्हें हाथों में फूल बेचते हुए तो कभी कोई खिलौना, कोई किताब बेचते हुए। ये बच्चे रोज़ अपनी रोटी का जुगाड़ करते नज़र आते हैं। इनका कुसूर सिर्फ इतना है कि ये मजबूर है, क्योंकि ये बाल मजदूर हैं।
जी हाॅं, बाल मज़दूर का अर्थ यूॅं तो हर देश, हर समाज, हर कानून अपनी तरह से लगता है, लेकिन हमारी नज़र में हर वो बच्चा, जो अपना बचपन खोकर सिर्फ रोटी के जुगाड़ में लगा रहता है, जो स्कूल नहीं जा सकता, जो सपने नहीं देख सकता और अपने हक़ के लिए लड़ नहीं सकता, बाल मज़दूर है।
क्यों होती है बाल मज़दूरी?
- ग़रीबी, अशिक्षा और परिवारिक व सामाजिक असुरक्षा इसका सबसे बड़ा कारण है।
- शहरों में जिस तरह से घरेलू नौकर के रूप में बच्चों से काम करवाने का चलन बढ़ा है, वो चलन अब बेलगाम हो चुका है।
- छोटे – छोटे होटलों, ढाबों या गैराज में काम करने वालों में अधिकतर बच्चे ही होते हैं।
- यही नहीं, कई ऐसे काम हैं, जो बच्चों के लिए खतरनाक हैं। ऐसी जगहों पर बच्चों से 14-16 घंटों लगातार काम करवाया जाता है।
- बच्चों के रूप में सस्ता लेबर मिल जाता है।
- उन्हें डराया, धमकाया जा सकता है।
- वो विरोध नहीं कर सकते। इन्हीं सब वजहों से बाल मजदूरी खत्म नहीं हो रही।
- गरीब व अशिक्षित लोग खुद मजबूर होते हैं। वो बच्चों को स्कूल भेजना अफोर्ड नहीं कर सकते, उनके लिए जो बच्चा दिनभर कुछ काम करके थोड़े से पैसे घर ले आए, वही काम का है। ऐसे में खुद इन बच्चों के माता- पिता भी कई बार जाने-अनजाने बाल मज़दूरी के लिए बच्चों पर दबाव डालते हैं।
बाल मजदूरी का दुष्प्रभाव –
जो बच्चे इसे झेलते हैं, उन पर इसका शरीरिक, मानसिक व भावनात्मक प्रभाव पड़ता ही है।
- इन बच्चों को समान्य बचपन नहीं मिलता।
- कुपोषण के शिकार होते हैं।
- अमानवीय व गंदे माहौल, जैसे पटाखा बनाने के कारखानों, कोयला खदानों आदि में काम करने पर इनका स्वास्थ्य खराब होता है।
- कमजोरी के कारण ये जल्दी बीमार पड़ते है।
- घरेलू काम करने वाले बच्चों की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं होती। उनकी उम्र से अधिक उनसे काम करवाया जाता है।
- मानसिक रूप से भी वे सामान्य बच्चों की तरह नहीं रह पाते।
- अशिक्षा की वजह से उनका पूरा भविष्य ही अंधकारमय हो जाता है।
क्या कोई उपाय है?
कोई भी समस्या मात्र कानून से ही खत्म नहीं होती। सामाजिक स्तर पर भी उसे खत्म करने के पूरे प्रयास होने चाहिए। लोगों को जागरूक व सतर्क करना जरूरी है। बदलाव आने में तो सदियाॅं लग जाती है। तब तक सरकार व प्रशासन को ही अपने स्तर पर कोशिश करनी चाहिए। ताकि उन्हें एक सामान्य बचपन मिल सके और हर बच्चे के चेहरे पर मुस्कान बिखर सके।
लेखिका : उषा पटेल
छत्तीसगढ़, दुर्ग
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