हे नारी! कमजोर , बेबस , और लाचार नहीं तुम ,
समस्त सृष्टि का एक मजबूत आधार हो तुम।
व्याप्त है प्रेम ,करुणा, ममता का अनंत विशाल सागर हर जगह तुमसे ही,
समाहित है क्षमा, दया, त्याग और समर्पण का अक्षुण्ण भाव हर वक़्त तुममे ही।
हे नारी! फिर ये विलाप क्यों कर रही तुम, अपने इस अस्तित्व पर ,
हुए संग तेरे जो अन्याय, मत चुपचाप खामोशी से पी अपने क्रोध का जहर।
संतोषी, अन्नपूर्णा, शांतिप्रिया, कल्याणी, सावित्री बन चुकी तुम अब बहुत ,
रुप दुर्गा, काली, चंडी़, क्रूरा, उत्कर्षिनी का अब तू धर।
उतार फेंक अपने हृदयंगम से डर , हिचकिचाहट और झिझक का वस्त्र,
अपने अधिकार, सम्मान की रक्षा खातिर धारण कर सत्य और न्याय का शस्त्र।
आखिर कब तक द्रौपदी – सा तुम असहाय बन श्री कृष्ण को बुलाती रहोगी ,
सीता बनकर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के आगमन के इंतजार में दिन बिताती रहोगी।
चलो उठो, अपने संस्कारों के दायरे से थोड़ा बाहर निकलो, और आगे बढ़,
बढ़े जो हाथ तुम्हारी आबरू को बेपर्दा करने, काली बन उसका तू संहार कर।
हे नारी! कमजोर, बेबस, और लाचार नहीं हो तुम ,
बल्कि समस्त सृष्टि का एक मजबूत आधार हो तुम।
शीर्षक : काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ
काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ ,
मैं भी गहरे तिमिर को दूर भगाऊँ।
मैं भी सबको अपनी वजूद का अहसास दिलाऊँ,
करें कोशिश कितनी भी हवाएँ हमें बुझाने की
फिर भी अपनी आखिरी पल तक
मैं डटकर उससे लड़ती ही जाऊँ।
गरीबों के घर की शान बन जाऊँ,
अमीरों के घर में भी मान पाऊँ ।
सुबह की पूजा , शाम की वंदना में स्थान पाऊँ,
पर्व – त्यौहारों में हर घर के कोने -कोने में जलाई जाऊँ।
काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ ,
मैं भी गहरे तिमिर को दूर भगाऊँ ।
लेखिका: आरती कुमारी अट्ठघरा ( मून)
नालंदा बिहार
Wawoo nice 👌
सहृदय आभार आपका 😊😊
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thank you so much
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