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भारतीय संस्कृति और वैलेंटाइन सप्ताह

 

उषा पटेल

भारतीय संस्कृति भी आज वैलेंटाइन सप्ताह के रंग में पूरी तरह

रंग चुकी है। 

    नवयुवक और नव युवतियाॅं अब खुलकर मोहब्बत का इज़हार करते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति में यह दिन बहुत महत्वपूर्व माना जाता है और वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। 

    मगर आज हम अपनी संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगते जा रहें है। 

    मोहब्बत का इज़हार करना गलत नहीं है, मगर अपनी सभ्यता के दायरे में रहकर ही वो मुकाम पाती है। 

   भारतीय संस्कृति में प्यार को बड़ा महत्व दिया गया है। 

 हमारी संस्कृति प्रेम के मार्ग पर चलकर ही फलीभूत हुई है।

प्यार के बिना हमारा जीवन अधूरा सा है। यहाँ पर राधा कृष्ण का प्यार, राम सीता, जोधा अकबर, मुमताज शाहज़ाह जैसे अनेक नाम प्यार की धरोहर है। 

प्यार से हर रंग महकता है। प्यार दिलों का अनोखा बंधन है। 

इसमें डुबकर गुलशन भी महक जाते है। 

पर अब हमारे समाज में इसे जाति में विभाजित कर दिया है। 

इससे आने वाली पीढ़ियाँ प्रभावित हो रही है और ये आने वाले कल के लिए अच्छा नहीं है। 

     फरवरी को हम प्यार का महिना के रूप में मनाते है। हर दिन कुछ ना कुछ डे मानते है जैसे

❣ 7 Rose day

❣ 8  propose day

❣ 9 chocolate day

❣ 10  Teddy day

❣ 11 promise day

❣ 12 Hug day

❣ 13 kiss day

❣ 14 Valentine’s day

  इस दिन हर कोई दिल खोलकर अपने प्यार का इज़हार करता है, चाहे कोई भी हो। 

 वैसे सनातन इतिहास की बात करें तो वेदों, शास्त्रों के पन्ने पढ़ने के बाद भी वैलेंटाइन डे, मातृ- पितृ दिवस, फादर्स दे, mother’s day, चॉकलेट डे, टेड्डी दे, रोज डे, किस डे, हग डे की कोई जानकारी नहीं मिलती। 

        आज वैलेंटाइन डे ( Valentine’s day) बना मार्केट….. 

वैलेंटाइन डे अब एक इंटरनेशनल मार्केट का रूप ले चुका है। 

होटल, पब, रेस्टोरेंट, मूवी थिएटर, कैफे, शॉपिंग मॉल सब इस दिन का बिज़नेस का रूप दे चुके है। 

हैरत की बात यह है कि वैलेंटाइन डे के नाम पर अब प्यार का इजहार खुलेआम होने लगा है। 

लोगों को खुद अपनी ज़िंदगी जीने दो, जो जैसे जीना चाहता है उसे निरापद जीने दो। 

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग

बनावटी रिश्तों की सच्चाई

बनावटी रिश्तों की सच्चाई

बनावटी रिश्तों की सच्चाई

आज आराध्या बिल्कुल ख़ामोश हो अकेले ही येलोस्टोन पार्क में बैठी हुई थी। हर दिन की तरह आज मोहित उसके साथ नहीं आया था। जब मैनें यह देखा तो यही जानने जिज्ञासावश आराध्या के पास गयी कि आज वो अकेली यहाँ कैसे, मोहित आज क्यों उसके साथ नहीं आया और मैं आराध्या के पास जा बैठी  उससे कुछ मैं पूछती इससे पहले ही आराध्या मुझे अपने पास पाकर मुझे गले से गला लिया और फफक-फफक कर रोने लगी और कहने लगी — प्यार करना गलत है क्या आरती, कोई गुनाह है क्या प्यार करना , मेरी जिंदगी बर्बाद हो गयी मेरी  दुनिया उजड़ गयी। यह सब सुनकर मैंने पहले आराध्या को चुप कराया और उससे सारी बातें पूछने लगी आखिर क्या हुआ ऐसी बहकी – बहकी बातें क्यों बोल रही हो? मोहित तो तुमसे बहुत प्यार करता है। यह बात सुनकर वो बोल उठी – मोहित मुझसे कोई प्यार – व्यार नहीं करता है वो तो किसी और से प्यार करता है। उसने मुझे धोखा दिया है। वो तो दिव्या से प्यार करता है, वहीं दिव्या जिसने रोहन को अपने झूठे प्यार में फंसाकर उसकी ज़िंदगी, उसका कैरियर सबकुछ तबाह कर दी थी। और अब वो मोहित को अपने जाल में, झूठे प्रेम में फंसाकर मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर रही है।

2020 की यादें…

मैंने जब मोहित को दिव्या की सच्चाई बताने की कोशिश की तो मोहित उल्टे हमपर ही गुस्सा करने लगा और कहने लगा तुम हमपर शक कर रही हो। और कौन दिव्या ? मैं कोई दिव्या को नहीं जानता जबकि मैने उसे ना जाने कितनी बार मोहित को दिव्या के साथ होटल में, शाॅपिंग माॅल में देखी हूँ। फिर उसने कहा जिस दिव्या की तुम बात कर रही हो वो ऐसी – वैसी लड़की नहीं है, वो तो बहुत ही अच्छी और नेक लड़की है। और हमसे झगड़ने लगा फिर आखिर में धक्के मारकर मुझे घर से निकल जाने को कह दिया । जब मैं वहाँ से जाने लगी तो कह दिया कभी लौटकर फिर मत आना तुम्हारी कोई जरूरत नहीं हमें। दिव्या ने जो कहा था हमसे उनसे आज कर दिया, मोहित को हमसे छीन लिया। मैने रोहन को दिव्या की सच्चाई बताई थी तब ही दिव्या हमसे कही थी देखना एक दिन तुमसे तुम्हारा मोहित मैं छीन लूंगी। तुम मोहित से बहुत प्यार करती हो ना, मोहित से तुम्हे मैं अलग कर दूंगी। देखो दिव्या ने आज वही किया, आरती। मैं ये सबकुछ सुनकर हक्का – बक्का रह गयी आखिर मोहित इतना कैसे बदल गया वो तो आराध्या की हर एक बात अपनी सर ऑंखों पर रखता था। मैने समझा- बुझाकर कर आराध्या को अपने घर ले आयी और कही मैं मोहित से बात करूँगी इस बारे में जब मोहित इस रविवार को अनाथ बच्चों के लिए खाना लेकर मेरे N.G.O. ऑफिस में आयेगा तब। तुम अभी मेरे घर पर ही मेरे साथ रहो ।

आराध्या दिन – भर मोहित की बातें करके पहले खुश होती फिर वो सब वाकया याद करके रोने लगती । आराध्या जैसी बिंदास लड़की की ऐसी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही थी लेकिन मैं भी क्या करती आराध्या ने मोहित के घर जाने से मुझे मना कर दिया था दिव्या जो मोहित के साथ रह रही थी इसीलिए । 

देखते  ही देखते रविवार आखिर ही आ गया। आराध्या ने हमें अपना ऑफिस जाते वक्त याद दिलाया – आरती आज मोहित से तुम मिलोगी ना।  हमने हामी भरते हुए कहा – हां , आराध्या आज मैं मोहित से जरूर मिलूँगी और पूरी कोशिश करूँगी तुम दोनों के बीच की सारी ग़लतफ़हमियाँ दूर हो जाए। यह सुनकर आराध्या के ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। मोहित हर बार की तरह अकेले ही मेरे मेरे N.G.O. ऑफिस बच्चों के लिए खाना लेकर आया था । तभी मैने रोहन और आराध्या को भी फोन करके अपना N.G.O. ऑफिस बुला ली। रोहन ने पहले तो आने से मना किया पर जैसे ही आराध्या के बारे में सबकुछ बताया वो आने के लिए झट से तैयार हो गया और कहा आराध्या ने ही तो हमें दिव्या जैसी अपराधिक मानसिकता वाली लड़की से बचाया है अब उसे बचाने की मेरी बारी है। मैने मोहित को भी कहा दिव्या को लेकर नहीं आये, उसे भी यहाँ बुला लो ना हम भी उससे थोड़ा मिल लूं । वो मेरी बात मान गया । रोहन आराध्या और दिव्या तीनों मेरे ऑफिस आ गये। दिव्या ने जैसे ही रोहन को देखा वो वहाॅं से भागने लगी पर मोहित और मैं दोनों ने किसी तरह रोक ली । फिर रोहन ने सबूत के साथ दिव्या की सारी सच्चाई मोहित को बता दिया। मोहित सबकुछ देखकर सुनकर हैरान रह गया और उसे अपनी गलती का अहसास हो गया। वो आराध्या से माफ़ी मांगने लगा और दिव्या को पुलिस के हवाले कर दिया। आराध्या के जीवन से दिव्या नाम का संकट हट गया और आराध्या मोहित की ज़िन्दगी में फिर से बहुरंगी ख़ुशियों की लहर दौड़ गयी।

गुस्सा भी नुकसानदायक होता है

लेखिका: आरती कुमारी अट्ठघरा ( मून)

नालंदा, बिहार

नारी के रूप अनेक

नारी के रूप अनेक

हिंदी दिवस से संबंधित कविता पढ़ें

काली की भयंकर कोमल छवि प्रिया हूँ मैं, 

अत्यंत क्रोध, रोष का समावेश है मुझ में। 

ग्लानि, दुःख, प्रेम से अनभिज्ञ रहती हूँ मैं, 

झलकता है अद्धभुत-सा अहंकार मुझ में। 

शक्ति रूपिणी तेज़ धार वाली कुठार हूँ मैं,

सर्वोत्तम क्षमताओं का समावेश है मुझ में। 

प्रतीत होती भले निरीह, लाचार, अबला हूँ मैं, 

पर राह बनाती हुई स्वयं की सबला है मुझ में।

कुदरत का दिया इस जग में मौजूद श्राप हूँ मैं,

ईश्वर प्रदत्त अनोखा हुनर विराजमान है मुझ में। 

बन जाती अकसर सबकी हँसी का पात्र हूँ मैं, 

समाज के व्यंग्यातमकता का निवास है मुझ में। 

कई जख्मों से लबरेज़ संसार की चिड़िया हूँ मैं,

इस जग को कमतर-सी दिखती प्रिया है मुझ में।

प्रेरणादायी एक लड़की

प्रेरणादायी एक लड़की 

मस्त-मगन सी अपने धुन की पक्की , 

बड़ी तो हो गई पर है दिल की बच्ची, 

सोच ठहर पाती नहीं है कहीं उसकी, 

जाना कहाँ है कोई राह नहीं दिखती,

सपने अजीबो-गरीब पलको में है रखती, 

क्या ऐसी नहीं है दुनिया में कोई हस्ती, 

जो पूरे कर दे उसके हर अरमान सस्ती, 

हर रिश्ता अपने बचपने में है छोड़ती, 

जो जी आता है उसके वही सोचती, 

बड़ी-बड़ी प्रेरणादायी बातें है सुनाती, 

ख़ुद को हमेशा सबसे कमतर आंकती, 

जब बारी आ जाएं न कभी उसकी, 

ज़िन्दगी से खूबसूरत मौत है लगती, 

बड़ी गहराई से ताने-बाने है समझती, 

देखकर लगती है गूंगी सी एक लड़की, 

विचारों में उसके है दिव्य कोई शक्ति, 

सहने की क्षमता नहीं रखता कोई हस्ती, 

कुछ इसी तरह मानी जाती है वो विपत्ति,

समाज के अजीब तानों-बानों सी है रिक्ति,

हाँ! वो कहलाई जाती है अभागी लड़की। ।

अनसुलझे किस्सों की रही कई पहेलियाँ

हम अपने विचार सभी से साझा करते रह ही गए। 

वो आए एक बार जिंदगी में हमारी और रह ही गए।

मन के सारे राज़ों को हमने अपने लिखकर कैद किया,

फिर भी हमारे कुछ राज़ थे जो अनकहे से रह ही गए।

सबने एहसासों को हमारे समझा अपना समझकर, 

पर फिर भी वे केवल वाह के मोहताज़ रह ही गए।

अनकहे अनसुलझे किस्सों की रही कई पहेलियाँ, 

जो जुड़े थे जिससे वो भी नासमझ बनते रह ही गए।

खेल गई एक मनमोहक दांव ये जिंदगी भी अपनी, 

और फिर हम उनके रंग में रंगकर रंगे रह ही गए।

कितने ही गहरे घाव वक़्त हर पल हमें देता गया, 

एक हम थे नारी की हमेशा सँभलकर रह ही गए।

लेखिका:  प्रिया कुमारी 

फरीदाबाद

Kids Short Stories

गुस्सा भी नुकसानदायक होता है

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गुस्सा या नाराज़ होना इंसानी फितरत है। 

अधिकांश लोग यह भी जानते है कि

अधिक गुस्सा भी नुकसानदायक होता है। 

लेकिन इसे कम कैसे किया जाए या इससे

छुटकारा कैसे पाया जाए, इसकी तरकीबें

नहीं जानते। *आज जान लीजिए। 

ज्यादा गुस्सा अच्छा नहीं होता…. 

        ❣ थोड़ा समय लें… 

अक्सर हम गुस्से में ऐसे शब्दों का प्रयोग

कर जाते है, जो नहीं करने चाहिए। जब भी

बहस हो रही हो या बात बिगड़ती दिख रही

हो तो स्थिति समझिए और फ़ोरन थोड़ी देर

को शांत हो जाएं। जो बोलना चाहते है, उसे

बोलने से पहले मन में दोहराए। समझ पाएंगे

कि वो कहने योग्य है या नहीं। 

        ❣ व्यस्त हो जाएं… 

लगता है कि गुस्सा बढ़ रहा है तो खुद को

काम में व्यस्त करने की कोशिश करें। 

बालकनी में चले जाएं। कपड़े उठा लें। 

कमरा समेट दें या कोई काम करने लगें। 

कुछ देर में गुस्सा खुद- ब – खुद

छूमंतर हो जायेगा। 

         ❣ संगीत का सहारा लें… 

गुस्सा आए या उदासी हो, तो संगीत सुनें। 

यदि नृत्य पसंद हो तो पसंदीदा गाना लगाएं। 

गुनगुना की कोशिश करे और थिरकें भी। 

चिड़चिड़ाहट चली जायेगी। गुस्सा शांत होगा। 

         ❣ कुछ मिठा खा लें…… 

जहां गुस्सा आए, उस जगह से चलें जाएं। 

बगीचे या छत पर जाएं। किसी मीठी याद

के बारे में सोचते हुए कुछ मीठा खाएं। 

       ❣ साझा करें….. 

किसी दोस्त, रिश्तेदार के साथ गुस्से की

वजह साझा करें और हल सुझाने के लिए

कहें। जब अपने गुस्से की वजह साझा करेंगे

तो खुद में सकारात्मकता पाएंगे। 

यहाॅं पढ़ें – प्रेरणादायक विचार

तो दोस्तों गुस्सा सेहत के लिए अच्छा नहीं होता। 

कभी भी छोटी- छोटी बातों पर गुस्सा होना या

नाराज़ होना ये सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। 

अगर गुस्सा अधिक आए तो व्यायाम करिए। 

ओर फिट रहिए। गुस्सा को बाय- बाय करिए। 

और गुस्से से छुटकारा पाइए।

दोस्तों हॅंसिए और हॅंसाइए और खुश रहिए। 🙏

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग

जादुई डायरी

जादुई डायरी

बात उस समय की है जब रमेश पांचवी कक्षा में पढ़ता था। उसके पिता एक गरीब कृषक थे। उसके यहाँ हमेशा खाने -पीने के लाले पडे़ रहते थे, इसके बावजूद वो अपने पुत्र को पढ़ा- लिखा कर उसे एक सफल और काबिल इंसान के रुप में देखना चाहते थे। एक दिन जब रमेश छुट्टी होने पर विद्यालय से घर लौटा और जब रमेश ने अपना बैग खोला तो उसे उसमें किसी की डायरी मिली उसे देखकर हक्का बक्का रह गया और  वो सोचने लगा आखिर ये डायरी किसकी है और बैग में इसे किसने रखा है ? वह डायरी को बड़े ही गौर से उलट – पुलटकर देखने लगा। अचानक डायरी से एक आवाज आयी — ए बालक! ये कोई साधारण डायरी नहीं है, बल्कि यह एक जादुई डायरी है । इस डायरी में लिखे हूए कार्यों में से तुम्हें प्रतिदिन एक कार्य करना है और बदले में हर रोज तुम्हें सोने की एक अशर्फी मिलेगी । यह डायरी तबतक तुम्हारे ही पास रहेगी जब तक तुम अपने माता – पिता की सेवा, आदर, देखभाल और उनका आज्ञा का पालन करते रहोगे। जिस दिन तुमने अपने माता – पिता का तिरस्कार कर उन्हें असहाय अवस्था में छोड़ दोगें, तुम्हारे पास से सोने की सभी अशर्फियां और डायरी भी गायब हो जायेगी। 

             रमेश चमत्कारी डायरी पाकर बहुत ही खुश हुआ और वह अदृश्य आवाज़ के कथनानुसार कार्य करने लगा। धीरे – धीरे समय बीतता गया और देखते ही देखते उसके पास सोने की ढे़र सारी अशर्फियां जमा होने लगी, और वह शहर के रईस व्यक्तियों की गिनती में आने लगा। माता – पिता भी उसकी तरक्की से बहुत प्रसन्न थे। लेकिन होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था। बीतते वक्त के साथ रमेश अहंकारी और बुरे आदतों में संलिप्त हो गया। माता – पिता की भी उसने अवज्ञा और अनादर करना शुरू कर दिया। उसके माता -पिता  हर दिन यही सोचते कि वो बडा़ ही समझदार है, उसे अपनी गलती का अहसास खुद ही हो जायेगा। रमेश अपने अहंकार के वशीभूत होकर अपने माता -पिता से गाली -गलौज, मार -पीट और उनका तिरस्कार करने लगा। फिर भी उसके माता – पिता अपने पुत्र -मोह के कारण उसे ऐसी अवस्था में छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। पर आखिर एक दिन उनके सब्र  का बांध टूट गया और उन्होंने फैसला लिया कि अब वो अपना घर छोड़कर कहीं और चले जायेंगे, फिर वहीं अपना पूरा जिंदगी बितायेंगे। और वे यह निश्चय कर वो दूसरे शहर की ओर पैदल ही चल दिये लेकिन दुर्भाग्यवश सड़क दुर्घटना में उसके माता – पिता की मृत्यु हो गयी। और रमेश हर दिन की तरह अगला कार्य डायरी में देखने गया तो उसे वो डायरी उसके घर में कहीं नहीं मिली तथा सोने की सभी अशर्फियां भी गायब हो चुकी थी । तब तक उसे अपनी गलती का अहसास होने में बहुत देर हो चुकी थी। वह अपने माता – पिता की खोज करने निकल पडा़ पर जब उसे अपने माता -पिता की मृत्यु का समाचार मिला तब उसका हृदय आत्मग्लानि से भर उठा और उसे अपने माता – पिता के साथ किये गये दुर्व्यवहार पर पश्यात्प होने लगा परंतु अब वह कुछ कर भी नहीं सकता था। 

सीख — चाहे हम  अपनी कामयाबी की परकाष्ठा पर भी रहे तब भी हमें हमेशा अपने माता – पिता का आदर – सम्मान और सेवा करनी चाहिए। अहंकार के वशीभूत होकर हमें रिश्तों की मर्यादा कभी नहीं भूलना चाहिए। 

लेखिका: आरती कुमारी अट्ठघरा ( मून)

नालंदा, बिहार

कविता – बिखरी हुई ज़िंदगी

 उषा पटेल

ये बिखरी हुई ज़िंदगी मुझे अक़्सर दिख जाती है

जब कभी मेरी रेलगाड़ी आउटर पर रुक जाती है

मेरी अंतरात्मा रो पड़ती है देखकर के ये इन्सान

नर्क कैसा होगा कल्पना भरना हो जाता है आसान 

भूखे नंगे बच्चे नाम के मकान, हर हाथ में दुकान

ये जान पर खेलकर टूट पड़ते है बेचने को सामान

अभी इनसे कोसों दूर है हमारे स्वक्षता अभियान

अभी शायद इनके पूरे नहीं हुए दुखों के इम्तिहान

इन्हें शायद भूलकर आगे बढ़ गया साक्षरता मिशन

छोटी सी उम्र में ही इन्हें प्यार करने लगे सारे व्यसन

सबके राशन कार्ड है सबका वोटर लिस्ट में नाम है

आखिर हर एक इलेक्शन में तो इन्हीं से काम है

इनकी मजबूरियाँ बहुत ही सस्ते में बिक जाती है

ये बिखरी हुई ज़िंदगी मुझे अक्सर दिख जाती है

जब कभी मेरी रेलगाड़ी आउटर पर रुक जाती है।

खामोशी…..

बदली है इक झूम के आई हुई

अब घटा है प्यार की छाई हुई

जब से डूबा हूॅं तुम्हारी याद में

हर तरफ है ख़ामोशी छाई हुई

दिख रहा है उनके मिलने का असर

फिर रही हो खूब इतराई हुई

क्या कहा है कान में कुछ तो कहो

लाल रंग है क्यों हो शरमाई हुई

हर अदा तेरी बड़ी हसीन है

हर अदा तेरी है भरमाई हुई

किस से मिलकर आ रही हो सच कहो

दिख रही है बहकी – घबराई हुई

कुछ तो है, जो इस क़दर ख़ामोश हो

फिर रही हो मुझसे कतराई हुई..! 

बचपन….

अमरैया की छाॅंव तले

नन्हे – नन्हे पाँव चले! 

हरी – भरी डाली में झूमें

बचपन जिसकी गोद पले! 

मीठे फल और ठंडी छाॅंव

बरगद वाला मेरा गाॅंव! 

लट देखो धरती को चूमे

मस्ती में वो सर- सर झूमे! 

ज्यों मतवाली नाव चले

अमरैया की छाॅंव तले! 

बजती जब पत्तों की ताली

कूके तब कोयल मतवाली! 

टहनी ने खूब दुलारा है

सबको सदा पुकारा है! 

पिता सरीखे प्यार दिया

जीवन सदा संवारा है! 

सबके आँसू पीकर इसने

शीतलता से घाव भरे! 

मस्ती में है नन्हा अर्जुन

और गुलाबो दाँव चले! 

अमरैया की छाॅंव तले

नन्हे -नन्हे पाँव चले! 

हरी – भरी डाली में झूमे

बचपन जिसकी गोद पले

लेखिका : उषा पटेल
छत्तीसगढ़, दुर्ग

स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त पर बाल कविता

रक्षाबंधन पर हिंदी कविताएं

नारी शक्ति

हे नारी! कमजोर , बेबस , और लाचार नहीं तुम , 

समस्त सृष्टि का एक मजबूत आधार हो तुम। 

व्याप्त है प्रेम ,करुणा, ममता का अनंत विशाल सागर हर जगह तुमसे ही, 

समाहित है क्षमा, दया, त्याग और समर्पण का अक्षुण्ण भाव हर वक़्त तुममे ही। 

हे नारी! फिर ये विलाप क्यों कर रही तुम, अपने इस अस्तित्व पर , 

हुए संग तेरे जो अन्याय, मत चुपचाप खामोशी से पी अपने क्रोध का जहर। 

संतोषी, अन्नपूर्णा, शांतिप्रिया, कल्याणी, सावित्री बन चुकी तुम अब बहुत , 

रुप दुर्गा, काली, चंडी़, क्रूरा, उत्कर्षिनी का अब तू धर। 

उतार फेंक अपने हृदयंगम से डर , हिचकिचाहट और झिझक का वस्त्र,

अपने अधिकार, सम्मान  की रक्षा खातिर धारण कर सत्य और न्याय का शस्त्र। 

आखिर कब तक द्रौपदी – सा तुम असहाय बन श्री कृष्ण को बुलाती रहोगी , 

सीता बनकर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के आगमन के इंतजार में दिन बिताती रहोगी। 

चलो उठो, अपने संस्कारों के दायरे से थोड़ा बाहर निकलो, और आगे बढ़, 

बढ़े जो हाथ तुम्हारी आबरू को बेपर्दा करने, काली बन उसका तू संहार कर। 

हे नारी! कमजोर, बेबस, और लाचार नहीं हो तुम , 

बल्कि समस्त सृष्टि का एक मजबूत आधार हो तुम।

शीर्षक : काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ  

काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ

काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ , 

मैं भी गहरे तिमिर को दूर भगाऊँ। 

मैं भी सबको अपनी वजूद का अहसास दिलाऊँ, 

करें कोशिश कितनी भी हवाएँ हमें बुझाने की 

फिर भी अपनी आखिरी पल तक 

मैं डटकर उससे लड़ती ही जाऊँ। 

गरीबों के घर की शान बन जाऊँ, 

अमीरों के घर में भी मान पाऊँ । 

सुबह की पूजा , शाम की वंदना में स्थान पाऊँ, 

पर्व – त्यौहारों में हर घर के कोने -कोने में जलाई जाऊँ। 

काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ , 

मैं भी गहरे तिमिर को दूर भगाऊँ ।

लेखिका: आरती कुमारी अट्ठघरा ( मून)

नालंदा बिहार

नारी का अस्तित्व

नारी का अस्तित्व

बहुत लम्बा अरसा हो गया हमें साथ में रहते हुए, 

जिंदगी के खूबसूरत लम्हों को मिलकर संजोते हुए,

पर फिर भी तुम मुझे कभी समझ ही ना सके।

खुशी हुई मुझे हर दर्द को तुम्हारे अपना बनाते हुए, 

सब कुछ छोड़कर अपना आई थी मैं सिर्फ तुम्हारे लिए, 

पर फिर भी मुझे तुम कभी दिल से अपना ही ना सके।

मलाल नहीं मुझे कि तुम इस विपदा में छोड़कर गए, 

फेरों के उन सात वचनों से मुख मोड़कर गए, 

पर फिर भी मेरी उम्मीदों को तुम तोड़ ना सके।

आज मैं दुखी हूँ अपने ही दर्द में मशगूल रहते हुए, 

रोज जलती हूँ तुम्हारी कड़वी बातों को सुनते हुए, 

पर फिर भी मेरी ख़ामोशी को तुम समझ ना सके।

ज़िंदगी कट रही है बस तुम्हारे साथ होकर भी न साथ रहते हुए, 

जीवन बीत गया सम्पूर्ण मेरा तुम्हारे संसार को संभालते हुए, 

पर फिर भी तुम मुझे कभी प्रेम से संभाल ही ना सके।

शीर्षक – नकारते है हम रिश्तों को जितना

नकारते है हम रिश्तों को जितना,

वो उतना ही हमारे करीब आ जाते हैं।

प्रेम जिंदा रहता है दिल में हर पल, 

बस वक़्त की शूली पर हम चढ़ जाते हैं। 

आख़िर मनुष्य है न भ्रम के वशीभूत हो अकसर, 

नाते-रिश्ते तोड़ने की कोशिश कर जाते हैं। 

ये रिश्ते होते है भगवान का दिया  सुंदर उपहार, 

इनसे हम ज़्यादा देर मुख नहीं मोड़ पाते हैं। 

जीवन है दुःख-दर्द, हँसी-खुशियों से बना

दवा का ख़ज़ाना, अपने ही कहलाते हैं। 

हाथ से पल भर का साथ क्या छूटे, 

थोड़ा-सा नाराज़ ज़रूर हो जाते हैं। 

सीने में भरकर उनके लिए गुस्सा, 

आँखों में आँसू छिपाते रह जाते हैं। 

प्रेम मैं वो तपिश है दुनिया की, 

जिसके समक्ष पत्थर भी पिघल जाते हैं। 

हम तो ठहरे इंसान भावनाओं से बने, 

भावों के आगे ख़ुद निढाल पड़ जाते हैं।

 शीर्षक – पत्नी

बड़ी नफ़ासत से सब कुछ, मेरे नाम का उसने अपना रखा है। 

मेरी पत्नी है वो जिसने अपने नाम का, एक सपना भी नहीं रखा है।

मैं तो बस अपनी नौकरी में मशगूल रहता हूँ, 

मेरी पत्नी ने अपनी नौकरी के साथ, मेरा घर सम्भाल रखा है। 

मेरी गलतियों को उसने हमेशा छुपाकर रखा है,

अपने अहम में चूर मैं उसे बोलने का अवसर नहीं देता हूँ।

मैंने सदा के लिए उसे केवल स्वार्थवश, अपनी आदत में शामिल कर रखा है।

मेरी पत्नी है वो जिसने मुझको जीताकर मेरे स्वाभिमान को ज़िंदा रखा है,

मैं तो सदा ही उसे बस, श्रृंगार की तुला पर तौलता आया हूँ,

मेरी पत्नी है वो जिसने, मेरे लिए अपना सर्वस्व लुटा रखा है। 

मैं तो उसकी छोटी-छोटी गलती को, बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता हूँ, 

लेकिन मेरी पत्नी है वो जिसने, मुझे, पूर्ण श्रद्वाभाव से अपना ख़ुदा मान रखा है।

लेखिका:  प्रिया कुमारी 

फरीदाबाद

कविता – हिंदी दिवस

Usha Patel

लिपि है इसकी देवनागरी,

भोली भाली है इसकी बोली,

नाम है इसका हिंदी… 

हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता,

हमारी शान है हिंदी,

हमारा देश का गौरव,

हमारा स्वाभिमान है हिंदी,

हमारी पहचान है हिंदी,

एकता की जान है हिंदी,

हमारी राष्ट्र-भाषा है हिंदी,

अलग-अलग प्रांतों में बोली हिंदी,

हिंदी तुझमें माँ जैसा भाव है,

सुंदर लेखन में लगती प्यारी हो,

हिंदी की धारा में माँ गंगा जैसा बहाव है,

तेरे लेखन में अद्भुत रिझाव है,

ये कैसा लगाव है,

बरगद की छांव है हिंदी,

भाषा है ये कुछ लोगों के लिए,

कइयों के साॅंस में बसती है हिंदी,

कबीरदास, तुलसीदास के

अलग अलग बोली में हिंदी,

भारत माँ के ललाट पर सजती हिंदी की बिंदी,

सारी भाषा है प्यारी पर हिंदी है निराली,

हिंदी से ही हिंदुस्तान यही हमारा है अभिमान,

सारे विश्व में फैले यही हमारा है अरमान..! 

संघर्ष कर

बड़े बड़े तूफ़ान थम जाते है,

जब आग लगी हो सीने में,

संघर्ष से ही राह निकलती है,

मेहनत से ही तक़दीर बनती है,

मुश्किलें तो आती रहेगी,

कोशिश करने से ही मुश्किलें संभलती है,

हौसले ज़िंदा रख तो मुश्किलें भी शर्मिंदा हैं,

मिलेगी मंजिल रास्ता ख़ुद बनाना है,

बढ़ते रहो मंज़िल की ओर चलना भी ज़रूरी है,

मंज़िल को पाने के लिए,

एक जुनून सा दिल में जगाओ तुम,

तू संघर्ष कर छू ले आसमान,

जीत ले सारा जहान….! 

संकट के बादल छंट जाएंगे

तेरे संकट के बादल सब छंट जाएंगे,

मन के तिमिर तेरे सब हट जाएंगे,

तुमको दिनकर देगा फिर से प्रकाश,

बस तुम करते रहना ख़ुद से प्रयास,

तुम विचलित अपना मत धैर्य करो,

बस मन के केवल तुम अवसाद हरो,

तुम निष्काम कर्म सदा करते रहना,

फल की चिंता में किन्चित मत रहना,

फिर तेरे प्रयास स्वयं ही मिल जाएंगे,

मन में ज्योतिपुंज सब खिल जाएंगे। 

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग

कविता – कद्र करना सिखा दिया, कोरोना का समय

उषा पटेल

छोटी – छोटी बातें और छोटी से छोटी वस्तुएँ समय आने पर कितने काम आती है, यह समझा दिया है। 

कद्र करना सिखा दिया…. 

महामारी से ग्रस्त यह साल

अपने आखिरी महीने तक आ पहुॅंचा है। 

गुज़रे नौ – दस महीने

किसी सख्त दिल गुरु की कक्षा जैसे, 

जो कुछ कड़वे, तो

कुछ मीठे सबक सिखा गए। 

किसने सोचा था कि

एक ऐसा दौर आएगा, 

जब हम सब घर के बाहर नहीं, 

घर के भीतर का, अपने रहन – सहन, 

आदतों का, सोच- समझ, रिश्ते – नातों, 

परवाह का अन्वेषण करेंगे, 

लगातार, महीनों तक ? 

 घर में रहना सीखेंगे। अपने घर

के खाने की कद्र करना समझेंगे। 

काली मिर्च, अदरक, लौंग जिन्हें

तीखा समझकर दरकिनारा कर

देते थे, उनको सोने – चांदी की तरह संभालेंगे। 

गर्मी में भी गुनगुना पानी पिएंगे, 

वो भी हल्दी डालकर। 

घर की स्त्रियां कितना काम

करती हैं, समझ पाएंगे। 

थककर बैठे इंसान को 

एक प्याला चाय मिले, तो

उसे कितनी राहत मिलती है, जान पाएंगे। 

जो हर समय घर में रहते रहें हैं, 

उनकी स्थिति का बहुत अच्छी

तरह अंदाजा लगा पाएंगे। 

केवल धूल साफ कर देने 

की मदद मिल जाए, 

तो कितना इत्मिनान होता है, यह जान पाएंगे। 

परिवार साथ हो, तो जीवन चाक-चौबंद रहता है,

किसी तरह का कोई डर नहीं सताता, 

किसी मुश्किल का अंदेशा परेशान नहीं करता, 

हाथ और मन कितने मजबूत हो जाते है 

यह छोटी – सी, सदियों से जानी – मानी

हकीक़त भी समझा गया यह साल।

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग