Supriya Shaw

कहानी – कोरोना संक्रमण का डर

मन में एक डर क्यूँ समाया है हर वक्त चिंता और व्याकुलता में सुबह से रात और रात से सुबह हो रही है ना भूख ना प्यास, बस खाना इसलिए खाएं जा रहे हैं क्योंकि जिम्मेदारियों का जो सफ़र है वह बाकी है। अभी तो शुरुआत हुई है, और मरने की भी जहां फुर्सत नहीं वहाँ कोरोना नामक अजगर मुँह बाये हर निर्दोष को निगले जा रहा है बस डर उसी अजगर से अब लग रहा है।

सुबह का समय हो और फ़ोन की घंटी बजी तो एक भय सा मन में समां जाता है कहीं कोई अनहोनी घटना तो नहीं सुनने को मिलेगी। और डर हो भी तो कैसे ना हो, अब तक अनगिनत अनहोनी घटनाओं का ख़बर सुन चुकी हूॅं की मन दुःख और पीड़ा से भर चुका है। भगवान पर भरोसा है और नहीं भी है। मानसिक स्थिति डगमगा चुकी है, स्थिरता नहीं रहीं, और कैसे रहेगी, अपने शुभचिंतकों के मरने की ख़बर ने हिला कर रख दिया है। आस पड़ोस के सन्नाटे में खौफ का दृश्य साफ – साफ दिख रहा है।

सब के दरवाजे बंद, अब तो ऐसा लगता है जैसे दिन रात सब एक समान है ऑंखें तभी लगती है जब दिमाग और शरीर पूरी तरह से थका हो, नहीं तो ऑंखें ढपती भी नहीं है। इसी दिनचर्या को अपनाकर समय कट रहा है। 

इन सबके बीच बहुत हिम्मत जुटाकर हम सब टीवी पर समाचार सुनने बैठते हैं मगर देश प्रदेश की खबरें रोंगटे खड़े कर देते हैं। देश की जर्जर अवस्था का पोल हर रोज खुलता है। जैसे अपने ही देश का चीरहरण हो चुका है। जहां दवा, डॉक्टर, अस्पताल, ऑक्सीजन, वैक्सिंग और चिकित्सा सुविधाओं की कमी का शोर हर रोज सुनाई दे रही है। लोग दवाइयों के अभाव में मर रहे हैं इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। जिनके पास पैसे हैं उनको भी और जिनके पास पैसे नहीं है उनको भी बिना मौत के मौत मिल रही है। शायद ही ऐसा कोई घर अब दिखता है जहां मौत ना हुई हो।

इस अर्थव्यवस्था के साथ लोग जीने को मजबूर हैं। इन सबके बीच पिस रहे गरीब, उनकी स्थिति और भी दयनीय हो चुकी है। ना काम है उनके पास ना पैसे, और रहने के लिए टूटा फूटा मकान है जिसमें अगर बारिश आ जाएं तो उनके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। उनकी ज़िंदगी भगवान भरोसे ही चल रही है। अभाव में जीना उन्हें आता है मगर कोरोनावायरस ने जो तमाचा मारा है उससे वे सहम गए हैं। उन्हें पता है अगर उन्हें कोरोना हो जाए तो वहां उनका इलाज नहीं होगा, क्योंकि छोटे-छोटे शहरों में और गाॅंव में डॉक्टर और अस्पताल की कमी है।

 मई 2021 का यह समय बहुत कुछ समझा और दिखा चुका है‌। आज हर कोई ज़िंदगी से जूझ रहा है, जीने की कोशिश कर रहा है, कोरोना के शिकार लोगों की मदद कर रहा है उनके लिए दुआ कर रहा है देश इस महामारी से उभरे ये अर्ज़ कर रहा है।

आज के इस दौर में अगर किसी को कुछ हो जाता है तो कोई परिजन मदद के लिए नहीं आ सकते, छूने से फैलने वाले संक्रमण से सभी दूर रहना चाहते हैं इसलिए अपने चेहरे पर मास्क लगाकर मुंह और नाक को ढक कर कहीं भी आना जाना करते हैं इस संक्रमण ने सबको अपनों से दूर कर दिया है। घर में क़ैद होकर रहना लोगों ने स्वीकार कर लिया है। जितनी जरूरत हो उतना ही लोग घर से बाहर निकलते हैं अब हम सबको पता है कि अगर हम सतर्कता नहीं बरतते हैं तो इस वायरस से बच नहीं सकते। हर तरफ़ निराशा है फ़िर भी ख़ुद को दिलासा दे रहे हैं सब ठीक हो जाएगा। और सभी हिम्मत रख कर एकजुट होकर इस वायरस से लड़ रहे हैं।

2020 से शुरू हुआ यह वायरस मई 2021 में भी हमारे बीच चल रहा है। और स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ती चली जा रही है।

हर अस्पताल कोरोना मरीज से भरा हुआ है। कोरोना की दूसरी लहर आ चुकी है और इस रूप परिवर्तन ने देश को हिला कर रख दिया है। आज हर गाॅंव-गाॅंव शहर-शहर कोरोना मरीज से भर चुका है अब ना कोई शहर बचा है और ना कोई  गाॅंव बचा है जहां कोरोना के मरीज नहीं है।

ज़िंदगी से रू-ब-रू

स्त्री विषयी कविता
किसान आंदोलन – हक की लड़ाई

कहानी – रात की बात

रात की बात

आज कल हम घर पर बिल्कुल अकेले थे। श्रीमती जी बच्चों को लेकर कुछ दिन मायके गयीं थी और हमें ये अकेलापन काटने को दौड़ रहा था लेकिन ये दिन भी निकलने ही थे।

दिन तो फिर भी निकल जाते थे लेकिन रात बहुत तकलीफ़ देती थी। घनी अंधेरी रातों में अकेलापन कभी ऊबाता था और कभी डराता था। आज रात हम अपना बोरिया बिस्तर ले कर छत पर आ गए थे। सोचा चलो आज खुले आसमान के नीचे, सितारों के बीच सोया जाए, शायद थोड़ा अच्छा महसूस हो ।

अमावस के बाद की ये पहली रात थी। चाँद का कहीं नाम-ओ-निशान नहीं था। अंधेरा बहुत घना था, वातावरण में मरघट जैसी शांति थी और ठंडी हवा के झौंके भी हमारी नींद में सहायक नहीं हो रहे थे। हमारे मुँह से निकला, रात तू इतनी डरावनी क्यूँ है? तभी ऐसा लगा जैसे कोई धीरे से हँस रहा हो और फिर एक आवाज़ आयी…. सच्चाई से डर लगता है तुम्हें? पहले तो हम एकदम चौंक से गए फिर डर और जिज्ञासा भरा स्वर हमारे मुँह से निकला…. मतलब? …. . वो हँसती हुई आवाज़ फिर बोली….मतलब ये अंधेरा, ये रात तो ज़िंदगी की सच्चाई है? इस से डर क्यूँ लगता है तुम्हें? तब तक हम थोड़ा संभल चुके थे। हमने कहा… डरने की क्या बात है लेकिन अंधेरा किसे पसंद आता है? और तुम हो कौन ? …… . 

मैं रात हूँ और तुम्हारे डर को भगाना चाहती हूँ….. उजाला कर दो डर भाग जाएगा, हमने कहा….. अंधेरे के पास उजाले का क्या काम? वो हँस कर फिर बोली। देखो तुम लोग एक चीज़ को समझने में हमेशा भूल करते हो और इसलिए ही डरते हो।… 

क्या?……यही कि अंधेरा हक़ीक़त है और उजाला मिथ्या…. वो कैसे?….. अंधेरा सर्व व्यापी है। वो सदा विद्यमान है। वो सारे ब्रह्मांड में फैला है। वो कहीं आता जाता नहीं है। वो असीमित है, अनंत है। ये तो उजाला है जिसे लाना पड़ता है। 

अंधेरे को छुपाने के लिए अग्नि की आवश्यकता होती है। उजाले के लिए किसी को जलना पड़ता है। जैसे तुम्हारी इस आकाश गंगा में उजाले के लिए सूर्य निरंतर जल रहा है । कह कर रात थोड़ा चुप हो गयी। अब हमें भी मज़ा आने लगा था। 

हमने कहा बात तो तुम्हारी सही है लेकिन फिर ये बताओ कि उजाले की सुख और अंधेरे की दुःख से तुलना क्यूँ की जाती है? 

वो इसलिए क्यूँकि मनुष्य सुविधा को ही सुख समझता है और उजाला सुख नहीं सिर्फ़ एक सुविधा है। और मनुष्य अब इन सुविधाओं का अभ्यस्त या कहो की गुलाम हो गया है। हालाँकि उजाला जीवन के लिए ज़रूरी भी है लेकिन जाने के कारण हमें अंधेरे को हेय भाव से नहीं देखना चाहिए क्यूँकि अंधेरा भी जीवन का अभिन्न अंग है।…. 

कैसे? हमने बात आगे बढ़ाने के उद्देश्य से पूछा। 

देखो जीवन के लिए जितनी आवश्यकता ऊष्मा की है उतनी ही शीतलता की भी है। दोनों का सही समन्वय ही जीवन का निर्माण करते हैं। उजाला ऊष्मा है और अंधेरा शीतलता। लेकिन समस्या ये है मनुष्य ने ख़ुद को उजाले के हिसाब से ढाल लिया है इसलिए अंधेरा उसे तकलीफ़देह लगता है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर अंधेरे में भी जीने का अभ्यास किया जाए तो मनुष्य सुख, दुःख की अनुभूति से काफ़ी हद तक दूर हो सकता है। 

अच्छा बताओ कुछ जीव तो अंधेरे में रहने के ही आदी होते हैं। गहरे पानी में भी जलचर बिना उजाले के रहते हैं उन्हें  कोई परेशानी नहीं होती, क्यूँकि उन्होंने इसका अभ्यास किया है। 

मनुष्य को भी दुःख और डर से छुटकारा पाना है तो अंधेरे में रहने का अभ्यास करना होगा। 

भीबात अब धीरे धीरे हमारी समझ में आ रही थी। हमने कहा तुम सही कहती हो रात। हमने उजाले को इतना अधिक महत्व दे दिया है कि अब अंधेरे को बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। हमें इस काले सफ़ेद के भेद को ख़त्म करना होगा। अंधेरा उजाला तो एक दूसरे में समाए हुए हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। हम काले कोयले को जलाते हैं तो वो सफ़ेद हो जाता है और सफ़ेद काग़ज़ को जलाते हैं तो काला हो जाता है। हम कोशिश करेंगे की अंधेरे को उजाले की तरह की अपनाएँ। 

धन्यवाद रात हम तो आँखें बंद करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन तुमने तो हमारी आँखें ही खोल दीं। 

रात फिर हँसी…..हाँ एक बात और जीवन का सबसे बड़ा अंधेरा वही है जब कोई साथ ना हो। अकेलापन ही अंधेरा है। जब कोई साथ होता है तो ना अंधेरा महसूस होता है ना डर। जैसे सूर्य अथवा चाँद के होने से अंधेरा मिट जाता है वैसे ही तुम्हारे साथ तुम्हारे परिजन होने से तुम्हारे मन का अंधकार मिट जाता है। इसलिए या तो अकेले रहने की आदत डाल लो या अपने परिजनों के बीच रहो। कह कर रात फिर एक बार हँस कर शांत हो गयी। 

हमारा मन भी अब एक अलौकिक सी शांति महसूस कर रहा था। हमारी पलकें अब भारी हो रही थी कि तभी बारिश की एक बूँद हमारे चेहरे से टकराई और हम अपना बोरिया बिस्तर समेट कर नीचे की तरफ़ भाग लिए । शायद आज नींद नसीब में ही नहीं थी।

निर्मल…✍️

बचपन

कुछ लोग मिले थे राहों में

बनावटी रिश्तों की सच्चाई

कहानी – हमसफ़र जूता

दोपहर का समय था और मै बहुत थका हुआ था, मेरे पाँव दर्द से बिलबिला रहे थे। इतना बिलबिला रहे थे की मैंने उन्हें सिकाई के लिए नमक वाले गर्म पानी में डाला हुआ था। घर का मुख्य दरवाजा खुला हुआ था। और तभी मेरी नज़र दरवाज़े के बाहर से झांकते हुए मेरे गंदे, मैले-कुचले जूते पर पड़ी। मुझे पता नहीं क्या सूझा मैंने गर्म पानी के टब में से अपने पैर बाहर निकाले और बाहर जा कर उन जूतों को उठाया। वो जूते मैंने बाथरूम में ले जा कर सर्फ़ और साबुन से तब तक धोए जब तो उनसे धूल-मिट्टी का एक एक कण नहीं निकल गया। वो मेरे पसंदीदा स्पोर्ट्स शूज़ थे। मैंने उन्हें बड़ी इज्जत से पंखे के नीचे सूखने के लिए रख दिया फिर वापस अपने पाँव टब में डाल दिए । एक प्यार भरी नज़र मैंने जूतों पर डाली और कल शाम से ले कर अभी तक के घटनाक्रम के बारे में सोचने लगा।

मुंबई में कल बहुत भयंकर बारिश हुई थी। शायद मुंबई के इतिहास की एक दिन में हुई सबसे अधिक बारिश। शाम होते होते मुंबई की लाइफ़ लाइन यानी के लोकल ट्रेन पटरियों पर पानी भरने की वजह से बंद हो चुकी थीं। सड़कों पर भी पानी भर गया था इसलिए यातायात भी अधिकतर जगहों पर ठप सा हो गया था। मेरा ऑफ़िस हमारे घर से क़रीब चालीस किलोमीटर दूर था जहां मैं लोकल ट्रेन द्वारा ही आता जाता था। शाम को जब घर जाने का समय आया तो हमें पता नहीं था कि हम घर कैसे पहुँचेंगे। यूँ तो क़रीब पचास लोग थे हमारे •ऑफ़िस में लेकिन कोई आस पास ही रहने वाला था और कोई कहीं और रहने वाला था सो मैं और मेरे दो सहकर्मियों जो मेरे घर के आस पास ही रहते थे, ने फ़ैसला किया कि हम तीनों साथ में चलते हैं और रास्ते में जो भी साधन मिलेंगे हम धीरे धीरे कर के घर पहुँच जाएँगे। स्तिथि ख़राब है हमें मालूम था लेकिन इतनी ज़्यादा ख़राब है ये हम में से किसी को भी अंदाज़ा नहीं था।

हम तीनों ने पैदल चलना शुरू किया। जेब के सामान के अलावा सिर्फ़ हमारा मोबाइल, बदन के कपड़े और जूते ही हमारे साथ थे। पैदल चलते चलते हम लोग लगभग दस किलोमीटर आगे निकल आए लेकिन आगे जाने के लिए कोई साधन नहीं मिला। पैदल चलते चलते हालत ख़राब होने लगी थी। भूख भी लगी थी। रास्ते में बहुत से लोग अपनी अपनी क्षमता अनुसार परेशान लोगों को चाय बिस्कुट इत्यादि बाँट रहे थे क्यूँकि हमारे जैसे हज़ारों लोग पैदल ही अपनी मंज़िल की तरफ निकल पड़े थे और सभी परेशान थे। 

तभी हमारे एक साथी का धैर्य जवाब दे गया। उसने कहा अब और नहीं चलूँगा मैं वापस जाने के लिए कुछ बसें चल रही है मैं तो वापस जा रहा हूँ, ऑफ़िस में ही रुक जाऊँगा। समस्या आगे चल कर अधिक थी इसलिए आगे जाने वाली गाड़ियाँ सड़क पर रुकीं हुई थी लेकिन वापस शहर की तरफ़ आने के लिए धीमे धीमे चल रही थीं। हमने उसे मनाया लेकिन वो नहीं माना और वापस जाती एक बस में चढ़ गया। 

अब हम दो लोग बचे लेकिन हमने आगे बढ़ना जारी रखा। मोबाइल की बैटरी ख़त्म ही चुकी थी सो उसने भी साथ छोड़ दिया। क्यूँकि हम दोनों साथियों ने ही स्पोर्ट्स शू पहने थे इसलिए चलने में थोड़ी आसानी थी। रास्तों में कहीं पानी भरा था कहीं कुछ जानवरों की लाशें पढ़ी थीं तो कहीं रुकी गाड़ियों की वजह से रास्ता बंद था। तो हमें कभी पानी में डूब कर कभी यहाँ वहाँ चढ़ कर और कभी छलांग लगा लगा कर आगे बढ़ना पड़ रहा था। 

कितने भी अच्छे जूते हों लेकिन बीस किलोमीटर चल कर वो भी ऐसी परिस्थिति में, कोई भी थक जाएगा। हम एकदम निढाल ही चुके थे। अब तो रास्ते पर पानी इतना अधिक था की सड़क भी नहीं दिख रही थी। तभी हमने देखा कि पानी के बीच एक बस खड़ी है जिसमें कुछ ही लोग दिख रहे थे। रात के क़रीब ग्यारह बज चुके थे और हम दोनों की हिम्मत जवाब दे चुकी थी। हम दोनों उस बस में चढ़ गए ख़ाली सीट देख कर हम लोगों उस पर बैठ गए। किसी बस में बैठने पर इतना सुकून तो आज तक नहीं मिला था। 

बस के अंदर भी थोड़ा पानी था लेकिन जूतों की वजह से ये अधिक परेशानी वाली बात नहीं थी, वरना तो पानी में दिए दिए पैर गल जाते। बस पानी में फँसी हुई थी सो आगे जाने वाली नहीं थी लेकिन हम आँखें मूँद कर उसी में तब तक पड़े रहे जब तक सुबह नहीं हो गयी। 

घर वाले भी चिंता कर रहे होंगे लेकिन उन्हें खबर करने का कोई साधन फ़िलहाल हमारे पास नहीं था। सुबह उठ कर थोड़ा ठीक लगा तो हम बस से उतर गए। पानी थोड़ा कम हो गया था लेकिन यातायात अभी थीं ठप था। भूख लगी थी लेकिन कोई इजाज़ नहीं था। 

तभी वहाँ साथ में चल रहे किसी आदमी ने सुझाव दिया कि सड़क मार्ग पर अधिक पानी है और रास्ता अधिक लम्बा है। रेल की पटरी पर सीधे सीधे चलेंगे तो आसानी होगी, ट्रेन तो वैसे भी चल नहीं रही हैं। मुझे सुझाव ठीक लगा और मैंने अपने सहकर्मी की तरफ़ देखा लेकिन वो अधिक आश्वस्त नहीं लग रहा था। उसने कहा यार अब बिल्कूल हिम्मत नहीं है, रेल की पटरी पर चलना आसान नहीं होता, कितने पत्थर होते हैं वहाँ, 

मैं एक काम करता इधर से दो किलोमीटर अंदर की तरफ़ मेरे रिश्तेदार का घर है मैं उधर चला जाता हूँ बाद में घर जाऊँगा जब सब थोड़ा ठीक हो जाएगा, तू निकल। थोड़ी निराशा तो हुई लेकिन मैंने उसे ok तू मेरे घर पर फ़ोन कर देना जरा, कह देना पहुँच जाऊँगा थोड़ी देर में चिंता ना करें, बोल कर रेल की पटरी की तरफ़ निकल गया।

मुंबई का भूगोल कुछ ऐसा है की पूरा मुंबई जैसे एक लाइन में बसा हुआ है। रेल की पटरी और मुख्य सड़क दोनों पूरी मुंबई में समानांतर चलते हैं। रेल की पटरी पर मैंने चलना शुरू कर दिया। बिल्कूल अकेले। मोबाइल साथ छोड़ चुका था, साथी भी अपनी अपनी राह जा चुके थे। 

कपड़े शरीर पर चुभ रहे थे लेकिन उन्हें पहने रखना मजबूरी थी। इस पूरे रस्ते अगर कोई मेरा पूरी मेहनत और बिना शिकायत के साथ दे रहा था तो वो थे मेरे जूते। 

अगर वो ना होते तो शायद मैं यहाँ भी नहीं पहुँचता अभी तो आधा रास्ता बाक़ी था। रेल की पटरी पर तो आप नंगे पैर चलने की सोच भी नहीं सकते। कोई छोटा, कोई मोटा, कोई नुकीला और कोई भारी पत्थर आपको घायल कर के ही छोड़ता लेकिन वो सारा दर्द, वो सारी तकलीफ़ मे जूते ने अपने ऊपर ले ली थी। दो दो- तीन तीन किलोमीटर के फाँसले पर मुंबई के उपनगरीय रेल्वे स्टेशन हैं। हमने चार स्टेशन यानी लगभग दस किलोमीटर ऐसे ही पार किए। भूख और थकान अब चरम पर पहुँच गयी थी और अभी और लगभग दस किलोमीटर का सफ़र बाक़ी था। 

स्तिथियाँ धीरे धीरे ठीक होती दिख रही थीं यानी की पानी काफ़ी हद तक उतर गया था और कुछ गाड़ियाँ सड़क पर चलती हुई दिख रहीं थी लेकिन ट्रेन अभी भी शुरू नहीं हुई थीं। दिन के लगभग ग्यारह बज गए थे और सूरज की धूप भी तीखी हो गयी थी। आज बारिश का नाम-ओ-निशान नहीं था। हमने सड़क पर जा कर कोई वाहन देखने का फ़ैसला किया जो हमें घर के पास पहुँचा सके। कुछ दूर सड़क पर चलने के बाद एक भला सा ट्रक वाला मिला जो हमारे घर तरफ़ ही जा रहा था और रास्ते में चलने वाले लोगों को पूछ पूछ कर अपने ट्रक पर चढ़ा रहा था मुझे तो जैसे किसी देवता के दर्शन गए थे। मैं भी लपक कर उस ट्रक के पीछे वाले भाग में चढ़ गया। 

बहुत गर्म हो रखा था उस ट्रक का फ़र्श। धूप बहुत तेज थी आख़िर और कोई छत भी नहीं थी ट्रक की। लेकिन मेरे उस दर्द को भी मेरे जूते ने झेल लिया। बैठ तो नहीं सकते थे उस गर्म पतरे पर लेकिन अपने जूते के भरोसे खड़े तो हो ही सकते थे। क़रीब एक घंटा खड़ा रहने के बाद जो की तीन चार घंटा चलने के मुक़ाबले तो बहुत बढ़िया था।

मैं अपने घर के एकदम पास पहुँच गया। ट्रक वाले को धन्यवाद बोल कर उसे पैसे भी देने की कोशिश की जो उसने नहीं लिए और मैं अपने पूरी तरह निढाल शरीर और एक मैले कुचैले लेकिन वफ़ादार जूतों के साथ घर पहुँच गया।

निर्मल…✍️

कविता

नए भारत का निर्माण

सिल्की व शाइनी हेयर

आपके हौसले, इरादे, आत्मविश्वास, दुनियादारी, प्रेम और समर्पण पर कविता

आपके सपने और आत्मविश्वास

लेखक के क़लम द्वारा पाठकगण से एक गुज़ारिश

नज़र

दुनिया आपको किस नज़र से देखती है, 

या फिर

आप दुनिया को किस नज़र से देखते हैं, 

ये बात बिल्कुल भी मायने नहीं करता,

फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है,

कि आप स्वयं को किस नज़र से देखते हैं। 

जब तक आप अपनी नज़र में हैं,

तब तक दुनिया की कोई भी ताकत,

आपके इरादों को, हौसलों को, 

आपके सपनों को, आपके आत्मविश्वास को,

चाहकर भी नहीं तोड़ सकती, 

चाहे वो कितनी भी कोशिश कर लें। 

लेकिन वही जब आप पूर्णतः

अपनी ही नजरों से ही गिर जाएंगे ना,

तब आपके जीवन रुपी नौका को, 

मझधार में डूबने से कोई नहीं बचा सकता, 

आपको डूबने से बचाने की, 

चाहे कोई कितनी भी कोशिश कर लें।

(इसलिए आप – हम सब हमेशा ही अपने नजरों में रहें । ऐसा करने पर ही हम, आप सब संघर्ष रुपी इस जीवन में सदैव अपनी – अपनी विजय – पताका लहरा पाएंगे, हर मुसीबतों, हर बाधाओं के ऊपर और लिखेंगे अपनी कामयाबी की दास्ताँ जिसकी आवाज सदियों सदियों तक रह पायेंगी इस नश्वर संसार में।)

यादों के खंडहर

यादों के खंडहर में कैद हैं, 

जीवन के अनगिनत लम्हें,

जो लौटकर आते नहीं कभी।।

हाँ, वो जो अनगिनत लम्हें हैं ना,

वो कुछ खुशी के तो कुछ गम के हैं,

हाँ, वो ही बन गये हैं अतीत ।। 

आ जाते हैं उभरकर कभी – कभी,

आंखों की गहराइयों में,

वो लम्हें हकीकत नहीं, प्रतिच्छाया बनकर।। 

होता है जब कभी ये चंचल मन स्थिर कभी,

तन्हाई और अकेलेपन में खुद को पाकर,

हंस देता है कभी-कभी, रो देता है कभी-कभी।। 

और निभाती है तब साथ उस चंचल मन का,

बस सिर्फ आंखें, दिल, और ओंठ ही।।

प्राप्त कर लेती है अमरत्व को 

प्राप्त कर लेती है अमरत्व को,

कुछ प्रेम कहानियाँ,

कर देती है स्वयं को समर्पित, 

जो समस्त संसार की खुशियों में, 

अपनी निजी खुशियों का दामन त्याग कर, 

और बन जाती है उदाहरण,

समस्त प्रेम कहानियों के लिए,

सदियों तक इस नश्वर संसार में।

होती है बेहद ख़ूबसूरत,

कुछ प्रेम कहानियाँ,

जो प्राप्त कर लेती है अपनी मंज़िल. 

और बिखेर देती है चहुँ ओर खुशियाँ, 

अपनी निजी खुशियों के रंगों में रंग कर, 

और बन जाती है उदाहरण, 

समस्त प्रेम कहानियों के लिए, 

सदियों तक इस नश्वर संसार में।

लेखिका: आरती कुमारी अट्ठघरा ( मून)

नालंदा, बिहार

Kids Short Stories

Life Thoughts 

Motivational Poem

कविता । कोरोना महामारी में इंसान की उम्मीद ना टूटे कभी

चिराग उम्मीदों का कभी बुझने मत देना

चिराग उम्मीदों का कभी बुझने मत देना, दिल में आस जलाये रखना,

माना परिस्थितियाँ आज विकट है, पर ये शाश्वत नहीं । 

वक्त हमेशा रहता नहीं एक जैसा, ये वक्त भी बदल जायेगा,

खुशियों भरा सवेरा फिर से आयेगा, बस धैर्य तुम अपना बनाये रखना। 

ये महामारी रूपी संकट के बादल जो छाए हैं चहुँ ओर छंट जायेंगे,

क्या हुआ जो अंधियारा घना छाया है , अंधियारों के बीच सितारे चमकते नजर आयेंगे।

धैर्य तुम अपना ना खोना कभी

मुश्किलों की भयावह लहरों से टकराई जो कभी ज़िंदगी की नाव, 

धैर्य अपना ना खोना कभी, ख़ुद पर हिम्मत हमेशा बनाये रखना। 

राहों में ख़ुशी मिले या ग़म आत्मसंयम की पतवार हर पल थामे रखना , 

जज़्बात रुपी मझधार में हमेशा उलझ कर तुम ना रह जाना। 

लहरों के विपरीत होता चलना कभी भी बेहद आसान नहीं, 

करके अपने अंतर्मन की शक्तियों पर विश्वास बस निरंतर आगे बढ़ते जाना। 

डर के साये से बाहर निकल कोशिशें बारंबार करते जाना, 

पर तुम हार ना मानना कभी, चाहे हो जाए क्यों ना कुछ भी। 

प्रयासों का कारवां रहे जब रहे संग, साहिल तुझे अपना मिल पाएगा तभी,

मत होना निराश बस रख आस, कभी साकार हो जायेंगे सपने सभी। 

मुश्किलों की भयावह लहरों से टकराई, जो कभी ज़िंदगी की नाव, 

धैर्य अपना ना खोना कभी, ख़ुद पर हिम्मत हमेशा बनाये रखना।

अंजाम की फ़िक्र

अंजाम की फ़िक्र ना कर तू बंदे ! बस अपना कर्म कर तू निरंतर ।

आये सफर-ए-जीवन में मुश्किलें कितनी भी, घबराकर उनसे ना बदलना राहें।

हार में भी तुम्हें अपनी जीत मिलेगी, हमेशा उनसे नयी-नयी सीख मिलेगी।

कोशिशें तुम अथक करना, अंधेरे में भी सदा रोशनी भरना।

मिलेगी मंज़िल एक दिन विश्वास रखना, अंतर्मन में हमेशा ये आस रखना।

अंजाम की फ़िक्र ना कर तू बंदे बस अपना कर्म कर तू निरंतर ।

लेखिका: आरती कुमारी अट्ठघरा ( मून)

नालंदा, बिहार

उत्तराखंड की ऐपण कला

स्त्री विषयी कविता

Food Recipes

व्यंग्य रचना – माॅं-बाप का बैंड बजा देते हैं वह बच्चे, जिनके आगमन पर माॅं-बाप बैंड बजाए थे कभी

व्यंग्य रचना

बच्चा जब जन्म लेता है तब माॅं-बाप फूले नहीं समाते और नाच, बाजा-गाजा, भोज करा कर खुशी से स्वागत करते हैं अपने जिगर के टुकड़े के आगमन का। और वहीं बच्चा बड़ा होकर जब उनकी बैंड बजा देता हैं और वह भी बड़े शान से।

उनके ज्ञान और सूझबूझ के सामने माॅं-बाप की समझ दूर-दूर तक बराबरी में नहीं होती हैं। उनका ज्ञान सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह चार पैसे कमा कर और परिवार, रिश्तेदार, समाज से दूर एक कमरे में ज़िंदगी गुजारने में खुद को इंडिपेंडेंट समझने लगते हैं। 

गिने-चुने चार दोस्तों के साथ बैठकर बर्गर-पिज्जा के साथ हेल्थ ड्रिंक पीकर ज़िंदगी का तजुर्बा गिनाते नहीं थकते हैं। उन्हें किसी माॅं, बाप, भाई, बहन रिश्तेदार की ज़रूरत नहीं होती, वह तो मस्त मलंग अपनी धुन में ऑफिस से उस चारदीवारी में और उस चारदीवारी से ऑफिस में अपनी दुनिया बसा लेते हैं। भले ही उस ऑफिस में रोज जलील होना पड़े, मगर उनके स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुॅंचती, मगर क्या मजाल मां-बाप दो शब्द उनकी झोली में डालना चाहे और वो स्वीकार कर ले, उससे बड़ी जिल्लत उनके लिए कुछ नहीं! 

ऑफिस की डांट फटकार सब स्वीकार है नहीं स्वीकार तो वह माॅं-बाप की तेज आवाज। आखिर कैसे स्वीकारे, सारे सूझबूझ तो पैदा होते ही विरासत में मिल गई थी। उंगली पकड़कर चलना भी कहाॅं सिखाया था किसी ने, कभी जरूरत पड़ी ही नहीं। पैदा होते ही खड़े होकर ऑफिस जाने लगे चार पैसे कमाने।

 हवा में उड़ना बिना पंख के कितना शोभनीय होता है इसका उदाहरण बच्चे ही तो समझाते हैं। वरना माॅं-बाप तो हमेशा फूंक-फूंक कर कदम रखना और चलना बताते हैं। और यहीं पर उन्हें पिछड़ी प्रवृत्ति के सम्मान से नवाजे जाते हैं। 

जमाने के कदम से कदम मिलाकर चलते इन बच्चों को शत-शत नमन करना जरूरी है। बंद आंखों के परदे खोल अकेले जीना बड़ी चतुराई से सीखाते हैं ये माॅं-बाप को। आज हर घर की कहानी पर यह छोटा सा व्यंग्य शायद कुछ लोगों को अच्छा ना लगे मगर कुछ लोगों को ही सही सच्ची लगेगी ज़रूर।

– Supriya Shaw…✍️🌺

बाल मजदूरी के कारण और दुष्प्रभाव

अब वो ज़माना नहीं रहा -एक व्यंग

प्रेरणादायक विचार

नए भारत का निर्माण

अब वो ज़माना नहीं रहा -एक व्यंग

एक व्यंग

आज सब कहते हैं “अब वो जमाना नहीं रहा” और एक गहरी सांस लेकर, ऑंखों में उमड़ते हजारों सवालों के बीच ख़ुद को खड़ा करना कोई नहीं चाहता।

 मगर चेहरे की उदासी बखूबी बयाॅं कर देती है उनके अंदर के तूफ़ान को, और उनके शब्दों के उतार-चढ़ाव को। 

कितना आसान है ना, एक छोटा सा सवाल दूसरों से करना, मगर ख़ुद से कभी नहीं।

हम किस जमाने को ढूंढते हैं या ढूंढना चाहते हैं? उसे तो दकियानूसी, पिछड़ा कल्चर कहकर छोड़ दिए थे। आज उसकी ज़रूरत क्यों पड़ी?

ज़रा नज़र उठा कर देखे, जमाना वहीं है बस त्याग और बलिदान जैसे आचरण लुप्त हो गए हैं, क्योंकि त्याग की सटीक परिभाषा हमने तो सीखा और उसके दर्द को भी सहा और उसका लुत्फ उठाया, मगर याद रहा सिर्फ दर्द, और हमने उस दरवाजे पर ताला लगा दिया और चाबी कहीं रखकर भूल गए।

आज वह दरवाज़ा बरसों बंद रहने के कारण जर्जर होकर टूट चुका है। हम उस में झांकना तो नहीं चाहते, मगर वह अपना चेहरा फाटक तोड़कर बाहर हमें दिखाने चली आई है, और अब दिखता है, सब वही है, बस हमने मुखौटा चढ़ाया है वह भी महज दिखावे का‌, क्योंकि हक़ीक़त तो एक खूबसूरत चोला पहनकर खड़ी है। कभी-कभी हकीकत नजर बचाकर झांकने की कोशिश करती है। मगर “अब वो जमाना नहीं रहा” जहाॅं नतमस्तक हो जाते थे वह लोग जिनको हम पिछड़ा जमाना कहकर पीछे छोड़ना चाहते हैं।

 हम जमाने के साथ चलना चाहते हैं और जमाना हमारे साथ चले यह मुमकिन नहीं! क्योंकि भाई! हम तो अपनी दिनचर्या में कोई समझौता नहीं करेंगे, हाॅं हमारी दिनचर्या पसंद आती है तो आप चल सकते हो, नहीं तो हम तो अकेले ही काफी है खुशहाली लाने के लिए। क्योंकि “अब वो ज़माना नहीं रहा”।

 वो तो मूर्ख थे जो हजारों की भीड़ साथ लेकर चला करते थे, अब देखो हम अकेले ही उनसे ज्यादा खुश और संतुष्ट हैं। क्योंकि वो पैसे और प्यार हम पर लुटाते थे हम तो अपनी तिजोरी का वज़न हर रोज नापते हैं क्योंकि “अब वो जमाना नहीं रहा”।

आज हर बात पर एक बात निकल जाती है अब वो ज़माना नहीं रहा‌। मगर ज़रा नज़र उठा कर देखे, हवा, चाॅंद, तारे, सितारे, दिशा सब कुछ वही है, बस हमें दिखता वहीं है जो हम देखना चाहते हैं।।

– Supriya Shaw…✍️🌺


नए भारत का निर्माण

कुछ साथी सफ़र में छूट गए

Two lines motivational quotes and status

अपनी अहमियत

बेशक़ीमती हैं आप,

 ख़ुद का अहम हिस्सा है आप, 

अपनी अहमियत पहचानिए, 

अपनी जगह ना किसी को दीजिए ||

काम की कद्र

क़िस्मत भी उनका साथ देती है जो मेहनत करते हैं, 

और आगे बढ़कर काम की कद्र करते हैं।

जीना ही जिंदगी है

सुख-दुख, अच्छा-बुरा हर रंग जीवन का उभर कर आता-जाता रहेगा। 

मन की भावनाओं को व्यक्त कर, खुल कर जीना ही जिंदगी है।।

मंज़िल नहीं है दूर

सच कहते हैं सब, मेहनत करने वालो की होती नहीं हार कभी । 

सर पे सवार हो मेहनत करने का जुनून, तो मंज़िल नहीं है दूर कभी||

रूठी हुई क़िस्मत

रूठी हुई क़िस्मत कर्म से मान जाएगी। 

सूरज की तरह दमकती तकदीर बन जाएगी।।

संघर्ष बना जीवन

संघर्ष बना जीवन का अहम हिस्सा, 

जिसके बिना कोई सफलता नहीं अछूता।।

सफलता का परचम

असफलता को देख ना घबराना कभी, 

सफलता का परचम लहराना एक दिन।।

हारने मत देना

अपनी मुस्कान को कभी हारने मत देना, 

अपनी पहचान को कभी मिटने मत देना।।


प्रेरणादायक विचार

Motivational Poem

Kids Short Stories

ज़िंदगी से रू-ब-रू

2 Lines quotes and status on life in Hindi

vishwash

विश्वास एक ऐसी कड़ी है जो हमें खुशियों से जोड़ती है। 

सब अच्छा होगा! यह भ्रम नहीं विश्वास है।।

कठिनाइयों का सफ़र है

दिल छोटा मत कीजिये कठिनाइयों का सफ़र है ज़रूर। 

हर सफ़र के रास्ते पर हमारी मंज़िल होगी ज़रूर।।

खुशियों की अभिलाषा हैं

बढ़ते है क़दम, नहीं थकते है जज़्बात मेरे, 

अनगिनत सपनों के साथ, खुशियों की अभिलाषा हैं।।

बचपन कभी दोबारा नहीं आता

बचपन कभी दोबारा नहीं आता, 

जवानी जाकर नहीं लौटती है, 

मगर जो बच्चे बचपन में ही जवान हो जाए, 

वो समय से पहले बूढ़े हो जाते हैं।।

भावनाओं की धज्जियाँ

भावनाओं की धज्जियाँ उड़ते, बिखरते देखा है। 

कईयों के गालो पर आँसू सुखते देखा है।।

बात ज़रूर कीजिए 

रिश्तों की डोर टूट ना जाए 

संपर्क बनाए रखिए।।

वो ज़िन्दगी कहाँ है

वो ज़िन्दगी कहाँ है हर कोई ढूंढता है, 

ढूंढने वालों की भी, उसका “पता” पता है, 

मगर वहाँ जाने की कोशिश, 

कहाँ कोई करता है।।

एक आदत नहीं बदलती

एक आदत नहीं बदलती 

समय के साथ जब 

वही ठीकरे बेहिसाब मिलते हैं।।

Supriya Shaw….✍️

2020 की यादें…

नारी के रूप अनेक

कुछ साथी सफ़र में छूट गए

वो एक मिनट

नारी के रूप अनेक

कुछ साथी सफ़र में छूट गए।

कुछ साथी बेवजह रुक गए।

कभी एक काफिला, कहलाया करते थे हम। 

एक-एक कर उसमें से, लोग होते गए कम। 

हर किसी मोड़ पर, हम अलग होते गए। 

सारे साथी फिर, कहीं खोते गए। 

अब ज़रा हमारे बीच, आया है अहम। 

वो नहीं याद करते हमें, पाला ये वहम। 

बस सबके दिल में है, एक चाहत।

पर एक-दूसरे को करने में, लगे है आहता। 

बढ़कर कोई हाथ, नहीं बढाता। 

इच्छाएं अब कोई बैठ, काफिले में नही सुनातIII 

बिना वजह हम, अपने साथी छोड़ आए। 

अब तक बैठे है, उनसे मुॅंह फुलाए।

कहानी – बनावटी रिश्तों की सच्चाई

यूँ शाम उतरती है दिल में

यूँ शाम उतरती है दिल में। 

जब कुछ मीठी यादें होती है संग में।।

हमारे पागलपन को, सहने की क्षमता हो,जब किसी में||

हर पल मुस्कुराहट की समरसता हो जिसमें|| 

यूँ शाम उतरती है दिल में। 

जब कोई हर बेवकूफी को हमारी, हँस के सह ले|| 

दो-चार डाट लगाने के बाद ही सही, पर हमें मना ले।। 

सुबह की लड़ाई को, जो शाम तक भुला दे|| 

हमे झकझोर कर सही, पर मीठे बोल सुना दे|| 

यूँ शाम उतरती है दिल में। 

जब कोई हमारी, हर चाहत पूरी करे|| 

मन रखने को हमारा, पूरी कोशिश करे|| 

हर बन्धन को तोड़, जो हमारे मन की करे।। 

हर मुश्किल घड़ी में, जीवन भर साथ खड़े रहे।। 

तब यूँ शाम उतरती है दिल में। 

जब कुछ सुनहरे पल होते है,संग में||

कुछ लोग मिले थे राहों में

सफर शुरू हुआ धरती के गलियारों में,

कुछ लोग मिले थे राहों में। 

जब जिसकी जरूरत पड़ी मिलते गए,

वक़्त के साथ फिर बिछड़ते गए।। 

देने को दे गए ढेरों सीख,

कुछ लोगों में भरी थी खीस।। 

जी बेवजह की हँसी हँस, डराते रहें,

काम शुरू होने पर, उदासी से भर जाते रहें।

अब तक मन को लगा है डर क्यों,

न हुई वो मेहनत सफल।। 

कहीं किसी के तानों की, वजह न बन जाऊँ।।

होकर असफल अजीब सी, हँसी में न फंस जाऊँ।

मेरे लिए वो था एक टास्क, 

जिसको नहीं दिया उसको हुआ न एहसास।। 

सफ़र की शुरुआत हुई है, 

अभी तो कुछ लोगों से और मिलना बाकी है।।

कुछ तानो में सिमटकर आगे बढ़ना ही काफी है।।

लेखिका:  प्रिया कुमारी 

फरीदाबाद