नारी शक्ति

नारी हर घर की शोभा है तू | International Women’s Day 2022

नारी हर घर की शोभा है तू

जग जननी है तू , जग पालक है तू
हर पग रोशन करने वाली है तू
माँ, बेटी, बहन, पत्नी है तू
जीवन के हर सुख-दुख में शामिल है तू
शक्ति है तू, प्रेरणा भी है तू
नारी हर घर की शोभा है तू ।।

दुख को दूर कर खुशिया बिखेरे तू
आँचल की ममता लिए
नैनो की आंसू पिए है तू
शक्ति है तू हर नर की
शोभा है तू हर घर की
आई विपदा जब-जब धरती पर
बनी दुर्गा, कभी काली बनी तू
नारी हर घर की शोभा है तू।।

By – Vikash Kumar
Digital Marketing Stretegist
LinkedIn

स्त्री विषयी कविता

नारी एक कहानी

Naari

न दफ़न होती कोख में, लड़की कभी,

  जो लड़का होती,

न मारी जाती, न जलाई जाती ज़िंदा,

कोई राज दुलारी, कहीं वो बहुरानी, न पत्नी

बस इंसान होती।

न लूट लेता कोई अस्मत उसकी,

जो वो बेटी अपनी, ना पराई होती,

ना छली जाती प्रेमी से कभी वो प्रेयसी,

जो वो प्रेम नारी बस यूँ ही,

बना दो झाँसी की रानी, 

या बंदूके हाथों में थमा दो,

वहशियों को वहशियत की तुम,

हाँ मौके पर सज़ा दो।

घर में चूड़ी से नहीं होगा,

अब इनका गुजारा,

लड़ मरे अस्मत की खातिर,

ज्वाला वो दिल में जला दो।

बेड़ियाँ कुछ यूँ हाँ खोलो,

बेटो सी नहीं तू बोलो,

तुझमें बेटो से ज़्यादा है शक्ति,

उनको तुम इतना जता दो।

तू भवानी, तू ही काली,

तुम उन्हें दुर्गा बना दो,

तुम उन्हें दुर्गा बना दो।।

वजूद स्त्री हो जाना

सच कहे तो स्त्री होना इतना आसान नहीं होता,

हर पल खुद को खोना होता है,

कभी बेटी बन के,

तो कभी पत्नी, बहु, तो कभी माॅं बन के, 

हर पल खुद को खोना होता है,

खुद ही खुद का वजूद मिटाना होता है,

क्या इतना सरल होता है खुद के वजूद को खो देना,

अगर इतना ही सरल होता है,

तो क्यों नहीं खो देते तुम अपने ही वजूद को,

क्यों एक पल सपने दिखाकर दूसरे ही पल छीन ले जाते हो,

कभी जिम्मेदारी के लिए, कभी मान – सम्मान के लिए,

सबको अपने से ऊपर और खुद को नींव बनाना पड़ता है,

अपने ही वजूद को मिटाना पड़ता है,

सपनों को छुपाना पड़ता है,

खुद को खोना पड़ता है,

सबकी खुशी के लिए खुद को नींव बन जाना पड़ता है। 

क्या अब भी लगता है? 

इतना सरल होता है स्त्री हो जाना?

क्या इतना सरल होता है खुद के वजूद को नाम देना?? 

कद्र करना सिखा दिया – कोरोना का समय

मेरी अपनी पहचान

रोटियाॅं

रोटियाॅं

माँ को जब देखती हूॅं चूल्हे पर रोटियाॅं सेकते हुए, नजर चली जाती है उसकी उंगलियों पर, जो शायद पक गई है, चूल्हे की ऑंच सहकर बरसो से, तो सोचती हूॅं, कि शायद उस विश्व रचयिता की उंगलियाॅं भी, इन उंगलियों के सामने कोई महत्व नहीं रखती। 

तो दोस्तों  रोटियाॅं के  ऊपर एक कविता प्रस्तुत करने जा रही हूॅं….। एक नज़र पढ़ लीजियेगा। 

कभी एक वक़्त भी नसीब नहीं होती है रोटियाॅं,

कभी कभी चार वक़्त भी मिल जाती है रोटियाॅं,

कभी किसी के दर्द से निकली हुई रोटियाॅं,

कभी भूख से पीड़ित जान ले लेती है रोटियाॅं,

कभी अमीर के घर की कूड़ेदान हो जाती है रोटियाॅं,

कभी माॅं के ऑंचल से लिपटी हुई रोटियाॅं,

कभी बाप के पसीने से भीगी हुई रोटियाॅं,

कभी यौवन के श्रृंगार रची हुई रोटियाॅं,

कभी बुढ़ापे के डर से कांपती रोटियाॅं,

कभी सावन के फुहार बलखाती रोटियाॅं,

कभी रेत की तरह फिसल जाती रोटियाॅं,

कभी सम्मान के खातिर बिक जाती है रोटियाॅं,

कभी गुनाह करके भी ऑंखे दिखाती है रोटियाॅं,

कभी ज़िंदगी के वजूद के लिए मिट जाती है रोटियाॅं,

आखिर में निवाला बनकर खत्म हो जाती है रोटियाॅं। 

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग


कविता – प्रेम विरह कविता

कहानी

नारी के रूप अनेक

नारी के रूप अनेक

हिंदी दिवस से संबंधित कविता पढ़ें

काली की भयंकर कोमल छवि प्रिया हूँ मैं, 

अत्यंत क्रोध, रोष का समावेश है मुझ में। 

ग्लानि, दुःख, प्रेम से अनभिज्ञ रहती हूँ मैं, 

झलकता है अद्धभुत-सा अहंकार मुझ में। 

शक्ति रूपिणी तेज़ धार वाली कुठार हूँ मैं,

सर्वोत्तम क्षमताओं का समावेश है मुझ में। 

प्रतीत होती भले निरीह, लाचार, अबला हूँ मैं, 

पर राह बनाती हुई स्वयं की सबला है मुझ में।

कुदरत का दिया इस जग में मौजूद श्राप हूँ मैं,

ईश्वर प्रदत्त अनोखा हुनर विराजमान है मुझ में। 

बन जाती अकसर सबकी हँसी का पात्र हूँ मैं, 

समाज के व्यंग्यातमकता का निवास है मुझ में। 

कई जख्मों से लबरेज़ संसार की चिड़िया हूँ मैं,

इस जग को कमतर-सी दिखती प्रिया है मुझ में।

प्रेरणादायी एक लड़की

प्रेरणादायी एक लड़की 

मस्त-मगन सी अपने धुन की पक्की , 

बड़ी तो हो गई पर है दिल की बच्ची, 

सोच ठहर पाती नहीं है कहीं उसकी, 

जाना कहाँ है कोई राह नहीं दिखती,

सपने अजीबो-गरीब पलको में है रखती, 

क्या ऐसी नहीं है दुनिया में कोई हस्ती, 

जो पूरे कर दे उसके हर अरमान सस्ती, 

हर रिश्ता अपने बचपने में है छोड़ती, 

जो जी आता है उसके वही सोचती, 

बड़ी-बड़ी प्रेरणादायी बातें है सुनाती, 

ख़ुद को हमेशा सबसे कमतर आंकती, 

जब बारी आ जाएं न कभी उसकी, 

ज़िन्दगी से खूबसूरत मौत है लगती, 

बड़ी गहराई से ताने-बाने है समझती, 

देखकर लगती है गूंगी सी एक लड़की, 

विचारों में उसके है दिव्य कोई शक्ति, 

सहने की क्षमता नहीं रखता कोई हस्ती, 

कुछ इसी तरह मानी जाती है वो विपत्ति,

समाज के अजीब तानों-बानों सी है रिक्ति,

हाँ! वो कहलाई जाती है अभागी लड़की। ।

अनसुलझे किस्सों की रही कई पहेलियाँ

हम अपने विचार सभी से साझा करते रह ही गए। 

वो आए एक बार जिंदगी में हमारी और रह ही गए।

मन के सारे राज़ों को हमने अपने लिखकर कैद किया,

फिर भी हमारे कुछ राज़ थे जो अनकहे से रह ही गए।

सबने एहसासों को हमारे समझा अपना समझकर, 

पर फिर भी वे केवल वाह के मोहताज़ रह ही गए।

अनकहे अनसुलझे किस्सों की रही कई पहेलियाँ, 

जो जुड़े थे जिससे वो भी नासमझ बनते रह ही गए।

खेल गई एक मनमोहक दांव ये जिंदगी भी अपनी, 

और फिर हम उनके रंग में रंगकर रंगे रह ही गए।

कितने ही गहरे घाव वक़्त हर पल हमें देता गया, 

एक हम थे नारी की हमेशा सँभलकर रह ही गए।

लेखिका:  प्रिया कुमारी 

फरीदाबाद

Kids Short Stories

नारी शक्ति

हे नारी! कमजोर , बेबस , और लाचार नहीं तुम , 

समस्त सृष्टि का एक मजबूत आधार हो तुम। 

व्याप्त है प्रेम ,करुणा, ममता का अनंत विशाल सागर हर जगह तुमसे ही, 

समाहित है क्षमा, दया, त्याग और समर्पण का अक्षुण्ण भाव हर वक़्त तुममे ही। 

हे नारी! फिर ये विलाप क्यों कर रही तुम, अपने इस अस्तित्व पर , 

हुए संग तेरे जो अन्याय, मत चुपचाप खामोशी से पी अपने क्रोध का जहर। 

संतोषी, अन्नपूर्णा, शांतिप्रिया, कल्याणी, सावित्री बन चुकी तुम अब बहुत , 

रुप दुर्गा, काली, चंडी़, क्रूरा, उत्कर्षिनी का अब तू धर। 

उतार फेंक अपने हृदयंगम से डर , हिचकिचाहट और झिझक का वस्त्र,

अपने अधिकार, सम्मान  की रक्षा खातिर धारण कर सत्य और न्याय का शस्त्र। 

आखिर कब तक द्रौपदी – सा तुम असहाय बन श्री कृष्ण को बुलाती रहोगी , 

सीता बनकर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के आगमन के इंतजार में दिन बिताती रहोगी। 

चलो उठो, अपने संस्कारों के दायरे से थोड़ा बाहर निकलो, और आगे बढ़, 

बढ़े जो हाथ तुम्हारी आबरू को बेपर्दा करने, काली बन उसका तू संहार कर। 

हे नारी! कमजोर, बेबस, और लाचार नहीं हो तुम , 

बल्कि समस्त सृष्टि का एक मजबूत आधार हो तुम।

शीर्षक : काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ  

काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ

काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ , 

मैं भी गहरे तिमिर को दूर भगाऊँ। 

मैं भी सबको अपनी वजूद का अहसास दिलाऊँ, 

करें कोशिश कितनी भी हवाएँ हमें बुझाने की 

फिर भी अपनी आखिरी पल तक 

मैं डटकर उससे लड़ती ही जाऊँ। 

गरीबों के घर की शान बन जाऊँ, 

अमीरों के घर में भी मान पाऊँ । 

सुबह की पूजा , शाम की वंदना में स्थान पाऊँ, 

पर्व – त्यौहारों में हर घर के कोने -कोने में जलाई जाऊँ। 

काश! मैं एक दीपक बन जाऊँ , 

मैं भी गहरे तिमिर को दूर भगाऊँ ।

लेखिका: आरती कुमारी अट्ठघरा ( मून)

नालंदा बिहार

नारी का अस्तित्व

नारी का अस्तित्व

बहुत लम्बा अरसा हो गया हमें साथ में रहते हुए, 

जिंदगी के खूबसूरत लम्हों को मिलकर संजोते हुए,

पर फिर भी तुम मुझे कभी समझ ही ना सके।

खुशी हुई मुझे हर दर्द को तुम्हारे अपना बनाते हुए, 

सब कुछ छोड़कर अपना आई थी मैं सिर्फ तुम्हारे लिए, 

पर फिर भी मुझे तुम कभी दिल से अपना ही ना सके।

मलाल नहीं मुझे कि तुम इस विपदा में छोड़कर गए, 

फेरों के उन सात वचनों से मुख मोड़कर गए, 

पर फिर भी मेरी उम्मीदों को तुम तोड़ ना सके।

आज मैं दुखी हूँ अपने ही दर्द में मशगूल रहते हुए, 

रोज जलती हूँ तुम्हारी कड़वी बातों को सुनते हुए, 

पर फिर भी मेरी ख़ामोशी को तुम समझ ना सके।

ज़िंदगी कट रही है बस तुम्हारे साथ होकर भी न साथ रहते हुए, 

जीवन बीत गया सम्पूर्ण मेरा तुम्हारे संसार को संभालते हुए, 

पर फिर भी तुम मुझे कभी प्रेम से संभाल ही ना सके।

शीर्षक – नकारते है हम रिश्तों को जितना

नकारते है हम रिश्तों को जितना,

वो उतना ही हमारे करीब आ जाते हैं।

प्रेम जिंदा रहता है दिल में हर पल, 

बस वक़्त की शूली पर हम चढ़ जाते हैं। 

आख़िर मनुष्य है न भ्रम के वशीभूत हो अकसर, 

नाते-रिश्ते तोड़ने की कोशिश कर जाते हैं। 

ये रिश्ते होते है भगवान का दिया  सुंदर उपहार, 

इनसे हम ज़्यादा देर मुख नहीं मोड़ पाते हैं। 

जीवन है दुःख-दर्द, हँसी-खुशियों से बना

दवा का ख़ज़ाना, अपने ही कहलाते हैं। 

हाथ से पल भर का साथ क्या छूटे, 

थोड़ा-सा नाराज़ ज़रूर हो जाते हैं। 

सीने में भरकर उनके लिए गुस्सा, 

आँखों में आँसू छिपाते रह जाते हैं। 

प्रेम मैं वो तपिश है दुनिया की, 

जिसके समक्ष पत्थर भी पिघल जाते हैं। 

हम तो ठहरे इंसान भावनाओं से बने, 

भावों के आगे ख़ुद निढाल पड़ जाते हैं।

 शीर्षक – पत्नी

बड़ी नफ़ासत से सब कुछ, मेरे नाम का उसने अपना रखा है। 

मेरी पत्नी है वो जिसने अपने नाम का, एक सपना भी नहीं रखा है।

मैं तो बस अपनी नौकरी में मशगूल रहता हूँ, 

मेरी पत्नी ने अपनी नौकरी के साथ, मेरा घर सम्भाल रखा है। 

मेरी गलतियों को उसने हमेशा छुपाकर रखा है,

अपने अहम में चूर मैं उसे बोलने का अवसर नहीं देता हूँ।

मैंने सदा के लिए उसे केवल स्वार्थवश, अपनी आदत में शामिल कर रखा है।

मेरी पत्नी है वो जिसने मुझको जीताकर मेरे स्वाभिमान को ज़िंदा रखा है,

मैं तो सदा ही उसे बस, श्रृंगार की तुला पर तौलता आया हूँ,

मेरी पत्नी है वो जिसने, मेरे लिए अपना सर्वस्व लुटा रखा है। 

मैं तो उसकी छोटी-छोटी गलती को, बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता हूँ, 

लेकिन मेरी पत्नी है वो जिसने, मुझे, पूर्ण श्रद्वाभाव से अपना ख़ुदा मान रखा है।

लेखिका:  प्रिया कुमारी 

फरीदाबाद