Comic satirical compositions

‘यूपी में का बा!’ और ‘यूपी में सब बा’ गाने की चर्चा हर तरफ़ हो रही है

‘यूपी में का बा!’ और ‘यूपी में सब बा’ गाने की चर्चा हर तरफ़ हो रही है। मगर जो बात ‘यूपी में का बा!’ में दिखाई दें रहीं है।

वो ‘यूपी में सब बा’ या  ‘यूपी में बाबा है… यूपी में बा… बा,  में भी वो बात नहीं दिखाई दें रहीं है।

“यूपी में का बा?” गीत गाकर और जिस ज़िंदादिली से अनेकों न्यूज़ चैनल और रिपोर्टरों के सामने आकर “यूपी में का बा – पार्ट 2”  बनाने का जोश नेहा सिंह राठौर ने दिखाया वह काबिले तारीफ़ है। 

सोशल मीडिया पर ‘यूपी में का बा’  गीत के लिए ट्रोल की जा रहीं नेहा सिंह राठौर ने ‘यूपी में का बा! पार्ट 2’ बनाकर इतना तो ज़रूर बताया है कि जनता उनके साथ है। कई न्यूज़ चैनल  में उन्हें इतना तक कहते दिखें कि आपके गीत के हर शब्द कहीं ना कहीं सत्य है। इसलिए हम आपके साथ हैं और उनके गाने को बार-बार अपने चैनल पर दिखा रहें हैं। उनके इंटरव्यू को BBC News Hindi, इंडिया टीवी, news24, News talk जैसे कई चैनल पर देख सकते हैं। 

उनके ‘यूपी में का बा’  इस गीत को हर न्यूज़ चैनल पर हम देख सकते हैं। सुन सकते हैं कि इस गाने के बोल कहीं भी ऐसे नहीं है जिसकी वज़ह से नेहा सिंह राठौर को इतनी ट्रोलिंग की मार सहनी पड़े। इसलिए उनकी बात कितनी सच कितनी झूठ है यह हम सब जानते हैं।

लेकिन अब वहीं ‘यूपी में सब बा’ रवि किशन की आवाज़ में हम सब सुन सकते हैं। उसके लिए ट्रोल की मार खाने की नौबत नही आएगी। 

वैसे नेहा सिंह राठौर के हर गीत में समाज के लिए एक संदेश दिखता है। गरीबी, बेरोज़गारी, नई दिशा, दोहरे चेहरे का सच, रीति और कुरीतियों के साथ अपनी सभ्यता और संस्कृति का एक नया रूप दिखता है नेहा सिंह राठौर के गाने में। 

आज लोग उनके साथ हैं इसलिए वह ‘यूपी में का बा’ के बारे में कहती है, अभी तो यह शुरुआत है! अभी तो इसके पार्ट 3, पार्ट 4, पार्ट 5 आते ही रहेंगे, मैं किसी से डरने वाली नहीं हूं।

और वाकई में अगर एक गीत के बोल पर इतनी ट्रोलिंग हो तो रुकना नहीं चाहिए नेहा सिंह राठौर को। उनका फ़ैसला बिल्कुल सही है। वो अपने शब्दों को कहीं भी कमज़ोर ना पड़ने दें। हमारी यही कामना है। 

और आख़िरी में एक और गायिका का भी जिक्र करूंगी जो गा रही हैं ‘यूपी में बाबा है यूपी में बाबा’! अब बस इतना ही। 

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व्यंग्य रचना – माॅं-बाप का बैंड बजा देते हैं वह बच्चे, जिनके आगमन पर माॅं-बाप बैंड बजाए थे कभी

व्यंग्य रचना

बच्चा जब जन्म लेता है तब माॅं-बाप फूले नहीं समाते और नाच, बाजा-गाजा, भोज करा कर खुशी से स्वागत करते हैं अपने जिगर के टुकड़े के आगमन का। और वहीं बच्चा बड़ा होकर जब उनकी बैंड बजा देता हैं और वह भी बड़े शान से।

उनके ज्ञान और सूझबूझ के सामने माॅं-बाप की समझ दूर-दूर तक बराबरी में नहीं होती हैं। उनका ज्ञान सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह चार पैसे कमा कर और परिवार, रिश्तेदार, समाज से दूर एक कमरे में ज़िंदगी गुजारने में खुद को इंडिपेंडेंट समझने लगते हैं। 

गिने-चुने चार दोस्तों के साथ बैठकर बर्गर-पिज्जा के साथ हेल्थ ड्रिंक पीकर ज़िंदगी का तजुर्बा गिनाते नहीं थकते हैं। उन्हें किसी माॅं, बाप, भाई, बहन रिश्तेदार की ज़रूरत नहीं होती, वह तो मस्त मलंग अपनी धुन में ऑफिस से उस चारदीवारी में और उस चारदीवारी से ऑफिस में अपनी दुनिया बसा लेते हैं। भले ही उस ऑफिस में रोज जलील होना पड़े, मगर उनके स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुॅंचती, मगर क्या मजाल मां-बाप दो शब्द उनकी झोली में डालना चाहे और वो स्वीकार कर ले, उससे बड़ी जिल्लत उनके लिए कुछ नहीं! 

ऑफिस की डांट फटकार सब स्वीकार है नहीं स्वीकार तो वह माॅं-बाप की तेज आवाज। आखिर कैसे स्वीकारे, सारे सूझबूझ तो पैदा होते ही विरासत में मिल गई थी। उंगली पकड़कर चलना भी कहाॅं सिखाया था किसी ने, कभी जरूरत पड़ी ही नहीं। पैदा होते ही खड़े होकर ऑफिस जाने लगे चार पैसे कमाने।

 हवा में उड़ना बिना पंख के कितना शोभनीय होता है इसका उदाहरण बच्चे ही तो समझाते हैं। वरना माॅं-बाप तो हमेशा फूंक-फूंक कर कदम रखना और चलना बताते हैं। और यहीं पर उन्हें पिछड़ी प्रवृत्ति के सम्मान से नवाजे जाते हैं। 

जमाने के कदम से कदम मिलाकर चलते इन बच्चों को शत-शत नमन करना जरूरी है। बंद आंखों के परदे खोल अकेले जीना बड़ी चतुराई से सीखाते हैं ये माॅं-बाप को। आज हर घर की कहानी पर यह छोटा सा व्यंग्य शायद कुछ लोगों को अच्छा ना लगे मगर कुछ लोगों को ही सही सच्ची लगेगी ज़रूर।

– Supriya Shaw…✍️🌺

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अब वो ज़माना नहीं रहा -एक व्यंग

एक व्यंग

आज सब कहते हैं “अब वो जमाना नहीं रहा” और एक गहरी सांस लेकर, ऑंखों में उमड़ते हजारों सवालों के बीच ख़ुद को खड़ा करना कोई नहीं चाहता।

 मगर चेहरे की उदासी बखूबी बयाॅं कर देती है उनके अंदर के तूफ़ान को, और उनके शब्दों के उतार-चढ़ाव को। 

कितना आसान है ना, एक छोटा सा सवाल दूसरों से करना, मगर ख़ुद से कभी नहीं।

हम किस जमाने को ढूंढते हैं या ढूंढना चाहते हैं? उसे तो दकियानूसी, पिछड़ा कल्चर कहकर छोड़ दिए थे। आज उसकी ज़रूरत क्यों पड़ी?

ज़रा नज़र उठा कर देखे, जमाना वहीं है बस त्याग और बलिदान जैसे आचरण लुप्त हो गए हैं, क्योंकि त्याग की सटीक परिभाषा हमने तो सीखा और उसके दर्द को भी सहा और उसका लुत्फ उठाया, मगर याद रहा सिर्फ दर्द, और हमने उस दरवाजे पर ताला लगा दिया और चाबी कहीं रखकर भूल गए।

आज वह दरवाज़ा बरसों बंद रहने के कारण जर्जर होकर टूट चुका है। हम उस में झांकना तो नहीं चाहते, मगर वह अपना चेहरा फाटक तोड़कर बाहर हमें दिखाने चली आई है, और अब दिखता है, सब वही है, बस हमने मुखौटा चढ़ाया है वह भी महज दिखावे का‌, क्योंकि हक़ीक़त तो एक खूबसूरत चोला पहनकर खड़ी है। कभी-कभी हकीकत नजर बचाकर झांकने की कोशिश करती है। मगर “अब वो जमाना नहीं रहा” जहाॅं नतमस्तक हो जाते थे वह लोग जिनको हम पिछड़ा जमाना कहकर पीछे छोड़ना चाहते हैं।

 हम जमाने के साथ चलना चाहते हैं और जमाना हमारे साथ चले यह मुमकिन नहीं! क्योंकि भाई! हम तो अपनी दिनचर्या में कोई समझौता नहीं करेंगे, हाॅं हमारी दिनचर्या पसंद आती है तो आप चल सकते हो, नहीं तो हम तो अकेले ही काफी है खुशहाली लाने के लिए। क्योंकि “अब वो ज़माना नहीं रहा”।

 वो तो मूर्ख थे जो हजारों की भीड़ साथ लेकर चला करते थे, अब देखो हम अकेले ही उनसे ज्यादा खुश और संतुष्ट हैं। क्योंकि वो पैसे और प्यार हम पर लुटाते थे हम तो अपनी तिजोरी का वज़न हर रोज नापते हैं क्योंकि “अब वो जमाना नहीं रहा”।

आज हर बात पर एक बात निकल जाती है अब वो ज़माना नहीं रहा‌। मगर ज़रा नज़र उठा कर देखे, हवा, चाॅंद, तारे, सितारे, दिशा सब कुछ वही है, बस हमें दिखता वहीं है जो हम देखना चाहते हैं।।

– Supriya Shaw…✍️🌺


नए भारत का निर्माण

कुछ साथी सफ़र में छूट गए

कविता – अधूरी कहानीयाॅं एक हास्य-व्यंग्य

यह कहानी इनोसेंट प्यार वाले उम्र की है, जैसे कि हर साल सेक्शन सफल होते हैं वैसे ही इस साल हुआ, गौरव और रिया दोनों को पांचवी कक्षा में एक ही सेक्शन मिला।

दोनों पढ़ाई में बेहद अच्छे थे,

टीचर के दोनों फेवरेट्स बच्चे थे,

पहली नज़र में ही गौरव को प्यार हो गया, 

जिससे उसका सीना तोड़ फरार हो गया, 

मगर रिया को उससे कोई मतलब नहीं था,

उसका इंटरेस्ट केवल एग्जामिनेशन में पहला पोजीशन लाना था,

फिर एक दिन दोनों को टीचर ने एक साथ बैठाया,

मानों गौरव के साथ ख़ुद भगवान बैठा था,

मगर बेचारा कुछ बयां ना कर पाया, 

वह ना ही इतना हिम्मत वाला था,

हर रोज़ पढ़ाई छोड़ बस उसे निहारता गया,

और धीरे-धीरे दिल अपना हारता गया, 

बड़ी कोशिश करता था पर पढ़ाई में मन किधर लग पाता था,

टीचर्स के सामने उड़ाया कागज़ का प्लेन जब,

रिया से जा टकराया था,

टीचर्स के डाॅंट से तब वह कहाॅं बच पाया था

दिन गुजरता गया, महीने बीतते गए, 

पर वह किधर कुछ कह पाया था,

बेचारा प्यार के चक्कर में सबसे अलग डाॅंट खाया,

ऐसे ही गुज़र गए साल और एग्जाम हुई, 

वह तो कर गई टॉप, जनाब 40 पर नीलाम हुए, 

घर पर पड़ी डाॅंट स्कूल छोड़ बोर्डिंग भिजवा गया,

ठान लिए भाई साहब अब प्यार छोड़ पढ़ाई पर ध्यान लगाएंगे,

नई कक्षा, पहला दिन, ठान के गए की पढ़ाई पर ध्यान लगाएंगे,

उसकी प्यारी भोली सी सूरत से नजरें हटा अब किताबों पर टिकाएंगे,

अगला दिन था क्लास का, नज़र ना आई उसकी सूरत,

पूछा उसके दोस्तों से तो हाथ आई नई ख़बर, 

हुआ ट्रांसफर उसके पापा का, बदल लिया स्कूल,

बस उसी वक़्त रोक अपने ऑंसू को कर लिया खुद को पढ़ाई में मशगूल,

अब बहुत साल हो गए पूरा हुआ स्कूल,

दोबारा कभी उससे मुलाकात ना हुई, 

काम में मशरूफ गौरव मियां की दोबारा तो ख्यालों में भी बात ना हुई,

बस अब कभी खोले जनाब किताबे तो वह उसकी याद दिला जाती है,

जब याद वह आती है मस्तिष्क, ह्रदय उसका सब हिला जाती है,

थोड़ी फ़िल्मी लगी होगी कहानी, क्योंकि वह ऐसा ही दौर था,

बाहें खोल शाहरुख़ प्यार फैलाता चारों ओर था।।

लेखक: जसजोत सिंह

दिल्ली

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