अब वो ज़माना नहीं रहा -एक व्यंग
आज सब कहते हैं “अब वो जमाना नहीं रहा” और एक गहरी सांस लेकर, ऑंखों में उमड़ते हजारों सवालों के बीच ख़ुद को खड़ा करना कोई नहीं चाहता।
मगर चेहरे की उदासी बखूबी बयाॅं कर देती है उनके अंदर के तूफ़ान को, और उनके शब्दों के उतार-चढ़ाव को।
कितना आसान है ना, एक छोटा सा सवाल दूसरों से करना, मगर ख़ुद से कभी नहीं।
हम किस जमाने को ढूंढते हैं या ढूंढना चाहते हैं? उसे तो दकियानूसी, पिछड़ा कल्चर कहकर छोड़ दिए थे। आज उसकी ज़रूरत क्यों पड़ी?
ज़रा नज़र उठा कर देखे, जमाना वहीं है बस त्याग और बलिदान जैसे आचरण लुप्त हो गए हैं, क्योंकि त्याग की सटीक परिभाषा हमने तो सीखा और उसके दर्द को भी सहा और उसका लुत्फ उठाया, मगर याद रहा सिर्फ दर्द, और हमने उस दरवाजे पर ताला लगा दिया और चाबी कहीं रखकर भूल गए।
आज वह दरवाज़ा बरसों बंद रहने के कारण जर्जर होकर टूट चुका है। हम उस में झांकना तो नहीं चाहते, मगर वह अपना चेहरा फाटक तोड़कर बाहर हमें दिखाने चली आई है, और अब दिखता है, सब वही है, बस हमने मुखौटा चढ़ाया है वह भी महज दिखावे का, क्योंकि हक़ीक़त तो एक खूबसूरत चोला पहनकर खड़ी है। कभी-कभी हकीकत नजर बचाकर झांकने की कोशिश करती है। मगर “अब वो जमाना नहीं रहा” जहाॅं नतमस्तक हो जाते थे वह लोग जिनको हम पिछड़ा जमाना कहकर पीछे छोड़ना चाहते हैं।
हम जमाने के साथ चलना चाहते हैं और जमाना हमारे साथ चले यह मुमकिन नहीं! क्योंकि भाई! हम तो अपनी दिनचर्या में कोई समझौता नहीं करेंगे, हाॅं हमारी दिनचर्या पसंद आती है तो आप चल सकते हो, नहीं तो हम तो अकेले ही काफी है खुशहाली लाने के लिए। क्योंकि “अब वो ज़माना नहीं रहा”।
वो तो मूर्ख थे जो हजारों की भीड़ साथ लेकर चला करते थे, अब देखो हम अकेले ही उनसे ज्यादा खुश और संतुष्ट हैं। क्योंकि वो पैसे और प्यार हम पर लुटाते थे हम तो अपनी तिजोरी का वज़न हर रोज नापते हैं क्योंकि “अब वो जमाना नहीं रहा”।
आज हर बात पर एक बात निकल जाती है अब वो ज़माना नहीं रहा। मगर ज़रा नज़र उठा कर देखे, हवा, चाॅंद, तारे, सितारे, दिशा सब कुछ वही है, बस हमें दिखता वहीं है जो हम देखना चाहते हैं।।
– Supriya Shaw…✍️🌺