कहानी – हमसफ़र जूता

दोपहर का समय था और मै बहुत थका हुआ था, मेरे पाँव दर्द से बिलबिला रहे थे। इतना बिलबिला रहे थे की मैंने उन्हें सिकाई के लिए नमक वाले गर्म पानी में डाला हुआ था। घर का मुख्य दरवाजा खुला हुआ था। और तभी मेरी नज़र दरवाज़े के बाहर से झांकते हुए मेरे गंदे, मैले-कुचले जूते पर पड़ी। मुझे पता नहीं क्या सूझा मैंने गर्म पानी के टब में से अपने पैर बाहर निकाले और बाहर जा कर उन जूतों को उठाया। वो जूते मैंने बाथरूम में ले जा कर सर्फ़ और साबुन से तब तक धोए जब तो उनसे धूल-मिट्टी का एक एक कण नहीं निकल गया। वो मेरे पसंदीदा स्पोर्ट्स शूज़ थे। मैंने उन्हें बड़ी इज्जत से पंखे के नीचे सूखने के लिए रख दिया फिर वापस अपने पाँव टब में डाल दिए । एक प्यार भरी नज़र मैंने जूतों पर डाली और कल शाम से ले कर अभी तक के घटनाक्रम के बारे में सोचने लगा।

मुंबई में कल बहुत भयंकर बारिश हुई थी। शायद मुंबई के इतिहास की एक दिन में हुई सबसे अधिक बारिश। शाम होते होते मुंबई की लाइफ़ लाइन यानी के लोकल ट्रेन पटरियों पर पानी भरने की वजह से बंद हो चुकी थीं। सड़कों पर भी पानी भर गया था इसलिए यातायात भी अधिकतर जगहों पर ठप सा हो गया था। मेरा ऑफ़िस हमारे घर से क़रीब चालीस किलोमीटर दूर था जहां मैं लोकल ट्रेन द्वारा ही आता जाता था। शाम को जब घर जाने का समय आया तो हमें पता नहीं था कि हम घर कैसे पहुँचेंगे। यूँ तो क़रीब पचास लोग थे हमारे •ऑफ़िस में लेकिन कोई आस पास ही रहने वाला था और कोई कहीं और रहने वाला था सो मैं और मेरे दो सहकर्मियों जो मेरे घर के आस पास ही रहते थे, ने फ़ैसला किया कि हम तीनों साथ में चलते हैं और रास्ते में जो भी साधन मिलेंगे हम धीरे धीरे कर के घर पहुँच जाएँगे। स्तिथि ख़राब है हमें मालूम था लेकिन इतनी ज़्यादा ख़राब है ये हम में से किसी को भी अंदाज़ा नहीं था।

हम तीनों ने पैदल चलना शुरू किया। जेब के सामान के अलावा सिर्फ़ हमारा मोबाइल, बदन के कपड़े और जूते ही हमारे साथ थे। पैदल चलते चलते हम लोग लगभग दस किलोमीटर आगे निकल आए लेकिन आगे जाने के लिए कोई साधन नहीं मिला। पैदल चलते चलते हालत ख़राब होने लगी थी। भूख भी लगी थी। रास्ते में बहुत से लोग अपनी अपनी क्षमता अनुसार परेशान लोगों को चाय बिस्कुट इत्यादि बाँट रहे थे क्यूँकि हमारे जैसे हज़ारों लोग पैदल ही अपनी मंज़िल की तरफ निकल पड़े थे और सभी परेशान थे। 

तभी हमारे एक साथी का धैर्य जवाब दे गया। उसने कहा अब और नहीं चलूँगा मैं वापस जाने के लिए कुछ बसें चल रही है मैं तो वापस जा रहा हूँ, ऑफ़िस में ही रुक जाऊँगा। समस्या आगे चल कर अधिक थी इसलिए आगे जाने वाली गाड़ियाँ सड़क पर रुकीं हुई थी लेकिन वापस शहर की तरफ़ आने के लिए धीमे धीमे चल रही थीं। हमने उसे मनाया लेकिन वो नहीं माना और वापस जाती एक बस में चढ़ गया। 

अब हम दो लोग बचे लेकिन हमने आगे बढ़ना जारी रखा। मोबाइल की बैटरी ख़त्म ही चुकी थी सो उसने भी साथ छोड़ दिया। क्यूँकि हम दोनों साथियों ने ही स्पोर्ट्स शू पहने थे इसलिए चलने में थोड़ी आसानी थी। रास्तों में कहीं पानी भरा था कहीं कुछ जानवरों की लाशें पढ़ी थीं तो कहीं रुकी गाड़ियों की वजह से रास्ता बंद था। तो हमें कभी पानी में डूब कर कभी यहाँ वहाँ चढ़ कर और कभी छलांग लगा लगा कर आगे बढ़ना पड़ रहा था। 

कितने भी अच्छे जूते हों लेकिन बीस किलोमीटर चल कर वो भी ऐसी परिस्थिति में, कोई भी थक जाएगा। हम एकदम निढाल ही चुके थे। अब तो रास्ते पर पानी इतना अधिक था की सड़क भी नहीं दिख रही थी। तभी हमने देखा कि पानी के बीच एक बस खड़ी है जिसमें कुछ ही लोग दिख रहे थे। रात के क़रीब ग्यारह बज चुके थे और हम दोनों की हिम्मत जवाब दे चुकी थी। हम दोनों उस बस में चढ़ गए ख़ाली सीट देख कर हम लोगों उस पर बैठ गए। किसी बस में बैठने पर इतना सुकून तो आज तक नहीं मिला था। 

बस के अंदर भी थोड़ा पानी था लेकिन जूतों की वजह से ये अधिक परेशानी वाली बात नहीं थी, वरना तो पानी में दिए दिए पैर गल जाते। बस पानी में फँसी हुई थी सो आगे जाने वाली नहीं थी लेकिन हम आँखें मूँद कर उसी में तब तक पड़े रहे जब तक सुबह नहीं हो गयी। 

घर वाले भी चिंता कर रहे होंगे लेकिन उन्हें खबर करने का कोई साधन फ़िलहाल हमारे पास नहीं था। सुबह उठ कर थोड़ा ठीक लगा तो हम बस से उतर गए। पानी थोड़ा कम हो गया था लेकिन यातायात अभी थीं ठप था। भूख लगी थी लेकिन कोई इजाज़ नहीं था। 

तभी वहाँ साथ में चल रहे किसी आदमी ने सुझाव दिया कि सड़क मार्ग पर अधिक पानी है और रास्ता अधिक लम्बा है। रेल की पटरी पर सीधे सीधे चलेंगे तो आसानी होगी, ट्रेन तो वैसे भी चल नहीं रही हैं। मुझे सुझाव ठीक लगा और मैंने अपने सहकर्मी की तरफ़ देखा लेकिन वो अधिक आश्वस्त नहीं लग रहा था। उसने कहा यार अब बिल्कूल हिम्मत नहीं है, रेल की पटरी पर चलना आसान नहीं होता, कितने पत्थर होते हैं वहाँ, 

मैं एक काम करता इधर से दो किलोमीटर अंदर की तरफ़ मेरे रिश्तेदार का घर है मैं उधर चला जाता हूँ बाद में घर जाऊँगा जब सब थोड़ा ठीक हो जाएगा, तू निकल। थोड़ी निराशा तो हुई लेकिन मैंने उसे ok तू मेरे घर पर फ़ोन कर देना जरा, कह देना पहुँच जाऊँगा थोड़ी देर में चिंता ना करें, बोल कर रेल की पटरी की तरफ़ निकल गया।

मुंबई का भूगोल कुछ ऐसा है की पूरा मुंबई जैसे एक लाइन में बसा हुआ है। रेल की पटरी और मुख्य सड़क दोनों पूरी मुंबई में समानांतर चलते हैं। रेल की पटरी पर मैंने चलना शुरू कर दिया। बिल्कूल अकेले। मोबाइल साथ छोड़ चुका था, साथी भी अपनी अपनी राह जा चुके थे। 

कपड़े शरीर पर चुभ रहे थे लेकिन उन्हें पहने रखना मजबूरी थी। इस पूरे रस्ते अगर कोई मेरा पूरी मेहनत और बिना शिकायत के साथ दे रहा था तो वो थे मेरे जूते। 

अगर वो ना होते तो शायद मैं यहाँ भी नहीं पहुँचता अभी तो आधा रास्ता बाक़ी था। रेल की पटरी पर तो आप नंगे पैर चलने की सोच भी नहीं सकते। कोई छोटा, कोई मोटा, कोई नुकीला और कोई भारी पत्थर आपको घायल कर के ही छोड़ता लेकिन वो सारा दर्द, वो सारी तकलीफ़ मे जूते ने अपने ऊपर ले ली थी। दो दो- तीन तीन किलोमीटर के फाँसले पर मुंबई के उपनगरीय रेल्वे स्टेशन हैं। हमने चार स्टेशन यानी लगभग दस किलोमीटर ऐसे ही पार किए। भूख और थकान अब चरम पर पहुँच गयी थी और अभी और लगभग दस किलोमीटर का सफ़र बाक़ी था। 

स्तिथियाँ धीरे धीरे ठीक होती दिख रही थीं यानी की पानी काफ़ी हद तक उतर गया था और कुछ गाड़ियाँ सड़क पर चलती हुई दिख रहीं थी लेकिन ट्रेन अभी भी शुरू नहीं हुई थीं। दिन के लगभग ग्यारह बज गए थे और सूरज की धूप भी तीखी हो गयी थी। आज बारिश का नाम-ओ-निशान नहीं था। हमने सड़क पर जा कर कोई वाहन देखने का फ़ैसला किया जो हमें घर के पास पहुँचा सके। कुछ दूर सड़क पर चलने के बाद एक भला सा ट्रक वाला मिला जो हमारे घर तरफ़ ही जा रहा था और रास्ते में चलने वाले लोगों को पूछ पूछ कर अपने ट्रक पर चढ़ा रहा था मुझे तो जैसे किसी देवता के दर्शन गए थे। मैं भी लपक कर उस ट्रक के पीछे वाले भाग में चढ़ गया। 

बहुत गर्म हो रखा था उस ट्रक का फ़र्श। धूप बहुत तेज थी आख़िर और कोई छत भी नहीं थी ट्रक की। लेकिन मेरे उस दर्द को भी मेरे जूते ने झेल लिया। बैठ तो नहीं सकते थे उस गर्म पतरे पर लेकिन अपने जूते के भरोसे खड़े तो हो ही सकते थे। क़रीब एक घंटा खड़ा रहने के बाद जो की तीन चार घंटा चलने के मुक़ाबले तो बहुत बढ़िया था।

मैं अपने घर के एकदम पास पहुँच गया। ट्रक वाले को धन्यवाद बोल कर उसे पैसे भी देने की कोशिश की जो उसने नहीं लिए और मैं अपने पूरी तरह निढाल शरीर और एक मैले कुचैले लेकिन वफ़ादार जूतों के साथ घर पहुँच गया।

निर्मल…✍️

कविता

नए भारत का निर्माण

सिल्की व शाइनी हेयर