कोरोना काल की कविता

जो सबक कोरोना दे दिया, किसी क़िताब में नहीं मिला

जो सबक कोरोना ने दिया वो ज़िंदगी के किसी क़िताब में नहीं मिला,

जर्जर होते गए रिश्ते ऑंसू पोछने वालो की आहट ना मिली थी कहीं।

ऑंखें दरवाज़े पर आस लगाए ताकती रही, कंधा देने वाला ना कोई दिखा,

अपनों का साथ छूटता गया, साॅंसे अकेले दम तोड़ती रही।

इंसानियत कहीं मरती दिखीं, कहीं मोक्ष देता भगवान् मिला,

अपना नहीं था पर वो, सफेद कपड़े हर किसी को पहनाता दिखा। 

श्मशान बना गली-गली, राख ना उठाने वाला अपना मिला, 

वह कौन था जो राख मटकी में भर नाम उस पर लिखता रहा।

मिट गया निशां, खाली पड़ा घर-बार, दरवाज़े पर ना कोई अपना खड़ा दिखा, 

इस सफ़र पर ना राही, ना राहगीर था, अकेला चलता भीड़ में हर अपना दिखा।

ना होश था ख़ुद का, ना ज़िक्र किसी का होता दिखा, 

हर शख्स यहाॅं खौफ़ में, मौत से जूझता दिखा।

बुझ गया चिराग कई, अंधेरा घना सामने हुआ, 

क्या कहें इस काल में, काल बन निगलता रहा।

समय का कहर

समय का कहर

हर किसी के दिल में एक आग सी जल रही है।

हर रोज कभी सुलगती कभी बुझती जा रही है।।

खौफ है दहशत है मुस्कुराने की कोशिश भी है।

अपनों के बिछड़ने की ख़बर हर रोज मिल रही है।।

कोशिश चल रही है समय को मात देने की।

हर पहल पर धड़कने सबकी तेज हो रही है।।

ख़ामोश हर शहर है बोलती हर नज़र है।

हर रोज ज़िंदगी नया दांव चल रही है।।

पता है सब

हर बात में कहना “पता है सब”

मगर क्या सच में पता है सब?

जीवन के इस झूठ को अब तक स्वीकारा ना कोई, 

अहं रोके रखा या आदतों  ने जड़ बना ली मन में, 

ऐसे अहंकार को क्या जगह मिली समाज में!

काश समझ आती तो बात कुछ और होती, 

स्वार्थ की जगह भी “पता है सब” में ना सिमट जाती, 

यही है सच! कहते-कहते मर मिटता है इंसान, 

कभी रोष में, कभी हठ में, राग बिलापता है इंसान, 

ख़ुद को भ्रम की गहराई में क्यूँ डुबोता है इंसान, 

पूछे कोई जो मुझसे क्या है इसका कोई जवाब, 

“पता नहीं” कह कर शायद मैं भी सोचू बार-बार।।

– Supriya Shaw…✍️🌺

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