स्त्री विषयी कविता
नारी एक कहानी
न दफ़न होती कोख में, लड़की कभी,
जो लड़का होती,
न मारी जाती, न जलाई जाती ज़िंदा,
कोई राज दुलारी, कहीं वो बहुरानी, न पत्नी
बस इंसान होती।
न लूट लेता कोई अस्मत उसकी,
जो वो बेटी अपनी, ना पराई होती,
ना छली जाती प्रेमी से कभी वो प्रेयसी,
जो वो प्रेम नारी बस यूँ ही,
बना दो झाँसी की रानी,
या बंदूके हाथों में थमा दो,
वहशियों को वहशियत की तुम,
हाँ मौके पर सज़ा दो।
घर में चूड़ी से नहीं होगा,
अब इनका गुजारा,
लड़ मरे अस्मत की खातिर,
ज्वाला वो दिल में जला दो।
बेड़ियाँ कुछ यूँ हाँ खोलो,
बेटो सी नहीं तू बोलो,
तुझमें बेटो से ज़्यादा है शक्ति,
उनको तुम इतना जता दो।
तू भवानी, तू ही काली,
तुम उन्हें दुर्गा बना दो,
तुम उन्हें दुर्गा बना दो।।
वजूद स्त्री हो जाना
सच कहे तो स्त्री होना इतना आसान नहीं होता,
हर पल खुद को खोना होता है,
कभी बेटी बन के,
तो कभी पत्नी, बहु, तो कभी माॅं बन के,
हर पल खुद को खोना होता है,
खुद ही खुद का वजूद मिटाना होता है,
क्या इतना सरल होता है खुद के वजूद को खो देना,
अगर इतना ही सरल होता है,
तो क्यों नहीं खो देते तुम अपने ही वजूद को,
क्यों एक पल सपने दिखाकर दूसरे ही पल छीन ले जाते हो,
कभी जिम्मेदारी के लिए, कभी मान – सम्मान के लिए,
सबको अपने से ऊपर और खुद को नींव बनाना पड़ता है,
अपने ही वजूद को मिटाना पड़ता है,
सपनों को छुपाना पड़ता है,
खुद को खोना पड़ता है,
सबकी खुशी के लिए खुद को नींव बन जाना पड़ता है।
क्या अब भी लगता है?
इतना सरल होता है स्त्री हो जाना?
क्या इतना सरल होता है खुद के वजूद को नाम देना??
कद्र करना सिखा दिया – कोरोना का समय
रोटियाॅं
माँ को जब देखती हूॅं चूल्हे पर रोटियाॅं सेकते हुए, नजर चली जाती है उसकी उंगलियों पर, जो शायद पक गई है, चूल्हे की ऑंच सहकर बरसो से, तो सोचती हूॅं, कि शायद उस विश्व रचयिता की उंगलियाॅं भी, इन उंगलियों के सामने कोई महत्व नहीं रखती।
तो दोस्तों रोटियाॅं के ऊपर एक कविता प्रस्तुत करने जा रही हूॅं….। एक नज़र पढ़ लीजियेगा।
कभी एक वक़्त भी नसीब नहीं होती है रोटियाॅं,
कभी कभी चार वक़्त भी मिल जाती है रोटियाॅं,
कभी किसी के दर्द से निकली हुई रोटियाॅं,
कभी भूख से पीड़ित जान ले लेती है रोटियाॅं,
कभी अमीर के घर की कूड़ेदान हो जाती है रोटियाॅं,
कभी माॅं के ऑंचल से लिपटी हुई रोटियाॅं,
कभी बाप के पसीने से भीगी हुई रोटियाॅं,
कभी यौवन के श्रृंगार रची हुई रोटियाॅं,
कभी बुढ़ापे के डर से कांपती रोटियाॅं,
कभी सावन के फुहार बलखाती रोटियाॅं,
कभी रेत की तरह फिसल जाती रोटियाॅं,
कभी सम्मान के खातिर बिक जाती है रोटियाॅं,
कभी गुनाह करके भी ऑंखे दिखाती है रोटियाॅं,
कभी ज़िंदगी के वजूद के लिए मिट जाती है रोटियाॅं,
आखिर में निवाला बनकर खत्म हो जाती है रोटियाॅं।
लेखिका : उषा पटेल
छत्तीसगढ़, दुर्ग